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________________ ७८ सरस्वती वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मबन्धमें कारणभूत आलवको रोकना चाहिये जिससे कि कर्मबन्धकी आगामी परंपरा रुक जाय और तब बादमें बद्ध कर्मोंको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिये । यहाँपर इतना और समझ लेना चाहिए कि पूर्ण संवर होजानेके बाद ही निर्जराका प्रारम्भ नहीं माना गया है बल्कि जितने अंशोंमें संवर होता जाता है उतने अंशोंम निर्जराका प्रारम्भ भी होता जाता है। इस तरह पानी आनेके छिद्रको बंद करने और भरे हुए पानीको धीरे-धीरे बाहर निकालने से जिस प्रकार नाच पानी रहित हो जाती है उसी प्रकार कर्मबन्धके कारणोंको नष्ट करने और बद्ध कमका धीरे-धीरे विनाश करनेसे अन्तमें जीव भी संसार ( जन्म-मरण अथवा सुख-दुःख की परंपरा ) से सर्वथा निर्लिप्त हो जाता है। सांख्य आदि दर्शनोंको यद्यपि पूर्वोक्त पांचों तत्त्व मान्य है । परन्तु उनकी पदार्थव्यवस्थामें जैनदर्शन के साथ परस्पर जो मतभेद पाया जाता है उनका कारण उनका भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण ही है। तात्पर्य यह हैं कि सारभूत मुख्य मूलभूत या प्रयोजनभूत पदार्थोंको तत्त्वनामसे पुकारा जाता है। यही सबब है कि जैन दर्शनके दृष्टिकोणके मुताबिक जगत्में नाना तरहके दूसरे दूसरे पदार्थोंका अस्तित्व रहते हुए भी तत्त्व शब्दके इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर प्राणियोंके आत्यन्तिक सुख (मुक्ति) की प्राप्ति में जिनका समझ लेना प्रयोजनभूत मान लिया गया है उन पूर्वोक्त चित्शक्तिविशिष्टतत्त्व स्वरूप जीव, कार्माणवर्गणास्वरूप अजीव तथा इन दोनोंके संयोगरूप बन्ध और वियोग मुक्ति एवं संयोगके कारणभूत आसव और वियोग के कारणस्वरूप संवर और निर्जराको ही सप्ततत्त्वमयपदार्थव्यवस्थामें स्थान दिया गया है । सांख्य दर्शनके दृष्टिकोणके अनुसार मुक्तिप्राप्ति के लिये चित्शक्तिविशिष्टतत्वस्वरूप पुरुष तथा इनकी शरीरसम्बन्धपरंपरारूप संसारकी मूलकारण स्वरूप प्रकृति और इन दोनोंके संयोगसे होनेवाले बुद्धि आदि पंच महाभूत पर्यन्त प्रकृतिविकारोंको समझ लेना हो जरूरी या पर्याप्त मान लिया गया है। इसलिये सांख्यदर्शनमें नानाचित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व, इनका शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन पाँचों तत्त्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी ( सांख्यदर्शनकी ) पदार्थव्यवस्था में सिर्फ पुरुष, प्रकृति और बुद्धि आदि तेईस प्रकृतिविकारोंको ही स्थान दिया गया है। जैनदर्शनको सप्ततत्वस्वरूप पदार्थव्यवस्थाके साथ यदि सांख्यदर्शनकी पच्चीस तत्त्वस्वरूप पदार्थव्यवस्थाका स्थूल रूपसे समन्वय किया जाय तो कहा जा सकता है कि जैनदर्शनके जीवतत्वके स्थानपर सांख्यदर्शन में पुरुषतत्वको और जैनदर्शनके अजीवतत्त्व ( कार्माणवर्गणा ) के स्थानपर सांख्यदर्शन में प्रकृतितत्वको स्थान दिया गया है तथा जैनदर्शन के बन्धतत्वका यदि विस्तार किया जाय तो सांख्यदर्शनको बुद्धि आदि तेईस तत्वों की मान्यताका उसके साथ समन्वय किया जा सकता है। इतना समन्वय करनेके बाद इन दोनों दर्शनोंकी मान्यताओं में सिर्फ इतना भेद रह जाता है कि जहाँ सांख्यदर्शनमें बुद्धि आदि सभी तत्वोंको पुरुषसंयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया गया है वहाँ जैनदर्शन में कुछको तो प्रकृतिसंयुक्त पुरुषका विकार और कुछको पुरुषसंयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि सांख्यदर्शनके पच्चीस तत्वोंको जैनदर्शनके जीव, अजीव और बन्ध इन तीन तत्त्वोंमें संग्रहीत किया जा सकता है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में पच्चीस तत्वोंके रूपमें नानाचित्शक्तिविशिष्ट तत्व और इनका शरीरसम्बन्धपरम्परा अथवा सुख-दुःख परम्परारूप संसार ये दो तत्व तो कंठोक्त स्वीकार किये गये हैं। शेष संसारका कारण संसारका सर्वया विच्छेद स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तीन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी इन्हें पदार्थ मान्यतामें स्थान नहीं दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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