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________________ १० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सिद्धान्तके लौह पुरुष •श्री भगतराम जैन, मंत्री, अ० भा० दिगम्बर जैन परिषद, दिल्ली पं० बंशीधर शास्त्रीका स्थान जैनसमाज में उच्चकोटिके विद्वानोंमेंसे है। पं० बंशीधर शास्त्रीजी अ०भा० दिगम्बर जैन परिषदसे प्रारम्भसे जुड़े हुए है। इन्होंने परिषदकी रीतिनीतिका सदैव समर्थन किया है । अब भी वह परिषद केन्द्रकी प्रबन्धसमितिके सदस्य हैं। उनपर किसी दबाव या प्रलोभनने उनके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं होने दिया। - कपड़ेके व्यापारमें व्यस्त होते हए भी अपनी धार्मिक लगन में लग्नशील है । प्रतिष्ठा प्राप्तिकी भावनासे दूर रहते हैं । सादगीका जीवन सरल स्वाभावी सभी विशेषतायें इनमें पाई जाती हैं । समाजमें इनके द्वारा लिखित ग्रन्थोंका अपना स्थान है। मुझपर उनका बड़ा स्नेह है । मुझे जब भी बीना जानेका अवसर मिलता है मैं सीधा उन्हींके यहाँ पहुंचता हूँ। सामाजिक चर्चाएँ भी होती हैं । अपनी श्रद्धाके सुमन अर्पित करते हुए उनके दीर्घजीवनकी कामना करता हूँ। नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठाको प्रतिमूर्ति • सिं० आनन्दकुमार जैन पूर्व अध्यक्ष नगर पा० एवं स्थानीय जैन हितोपदेशिनी सभा, बोना पण्डितजी वाराणसीमें अध्ययन समाप्तकर सन् १९२८ में बीना आये थे और तभीसे उन्होंने बीनाको अपना कार्यक्षेत्र बनाया । जैनदर्शनके मौलिक चिन्तक एवं विचार कके रूपमें जहाँ एक ओर आपकी प्रतिभाका उद्भव हुआ, वहीं दूसरी ओर महात्मा गान्धीके स्वतंत्रताके राष्ट्रीय आन्दोलनोंसे आपका हृदय उद्वेलित होने लगा। धर्म एवं राष्ट्र एक दूसरेके सम्पूरक होते हैं । इस भावनासे अनुप्राणित होकर आप राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय हो गये और सन् १९४२ में आन्दोलनमें आप सागर व नागपुर,अमरावतीकी जेलमें न जाने कितने कष्ट सहे ।। युगकी आवश्यकताको दृष्टिगत रखते हए आपने सन्मार्ग प्रचारिणी समिति द्वारा देवगढ और केवलार गजरथ विरोधी आन्दोलन किये। एक स्वतन्त्र व्यवसायीके रूपमें अपना जीविकोपार्जन करते हए अपने पांडित्यको अर्थोपार्जनका माध्यम नहीं बनाया । आपकी विद्वत्ता और चिन्तनशीलता उच्चकोटिकी है। साथ ही दो बातें, जो मैंने आपके जीवनमें देखीं, वे हैं--कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकता । समाज, राष्ट्र और धर्मके त्रिकोण पर आपने अपनी इन विशेषताओं को आजीवन जीवन्त बनाये रखा है । एक महान लेखक और साहित्य-मनीषीके रूपमें भी आप विश्रुत हैं। आज भी साहित्यप्रणयनका महानयज्ञ इस ८४ वर्षकी वयोवृद्धावस्थामें अनवरत चालू है। अपने ठोस और आगम तर्कोके द्वारा-एकान्त नयका बहुत स्पष्ट और सूझबूझ पूर्वक सैद्धान्तिक खण्डन कर आर्ष परम्परा और आजके तथाकथित धार्मिक साहित्यमें आये दोषोंका निराकरण न केवल अपने चिन्तनशील निबन्धों/लेखोंके द्वारा किया अपितू 'जनशासनमें निश्चय और व्यवहार" जैसी कृतियाँ लिखकर समाज, शासन एवं धर्मका महान उपकार किया है। बीनाकी स्थानीय संस्था श्री नाभिनन्दन दि०जैन हितोपदेशिनी सभाके आप वर्षों मंत्री पदपर आसीन होकर, इस सभाको जीवनदान देकर समुन्नत किया था। पण्डितजी शान्तिप्रिय, अनुशासनप्रिय और मितभाषी हैं। इन्हीं गुणोंका प्रभाव आपके परिवारपर पडा । समाजके मार्ग दर्शक एवं राष्टके निःस्पह सेवक शतायुः होनेकी मंगल कामना करता हआ अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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