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________________ १ | आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ९ समाज और साहित्यकी तरह आपकी राष्ट्र-सेवा भी उल्लेखनीय है। सन् १९३१ से ही आप राष्ट्रीय कार्योंमें सक्रिय सहयोग देने लगे थे । सन् १९४२ के स्वतन्त्रता आन्दोलनमें आपने सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें असह्य कष्ट सहे । खादीको अपनाकर भी अन्य खादीधारी नेताओंसे बचे रहे। भारत सरकारने आपको स्वतन्त्रता सेनानीके रूपमें ताम्रपत्रपर अंकित प्रशस्ति पत्र द्वारा सम्मानित किया है। समाजके विश्रुत विद्वान् स्वर्गीय पं० बालचन्द्रजी शास्त्री और डॉ०६० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य आपके परिवारके सदस्य (भतीजे) हैं। आपके पुत्र भी सुयोग्य व धार्मिक विचारधाराके हैं। ऐसे देश, समाज, साहित्य और धर्मसेवी विद्वान्को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंटकर समाज निश्चय ही गौरवान्वित होगा । श्रद्धा-सुमन .श्री ताराचन्द्र, प्रेमी, महामंत्री भा० दि० जैन संघ, मथुरा मुझे यह ज्ञातकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम श्रद्धेय भाई साहब पं० बंशीधरजीको अभिनन्दनग्रन्थ समर्पित करनेका समाजने निर्णय लिया है । वस्तुतः वे उसके योग्य हैं । उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ किसीसे छिपी नहीं हैं । दस्सा पूजाधिकारमें उनका प्रमुख भाग रहा है। समाजमें खासकर बुन्देलखण्ड में गजरथोंकी भरमार थी और उनमें कितना ही अपव्यय होता था, जिससे समाजमें शिक्षा जैसे विधेयात्मक कार्य नहीं हो पाते थे । पण्डितजीने इस दिशामें कदम उठाया और गजरथोंका विरोध किया । सहस्रों लोगोंने उनका समर्थन किया। फलतः आज गजरथोंमें कमी हो गयी है और उनमें सुधार हुआ है । शिक्षाका प्रसार एवं प्रचार भी हुआ है। पण्डितजीकी राष्ट्र-भक्ति भी कम नहीं है । सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें भाग लेनेपर वे जेल भी गये । आज उनका नामोल्लेख बड़े गर्वके साथ स्वतन्त्रता सेनानियोंमें किया जाता है। हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके शतायुः होनेकी मंगल-कामना करते हैं। जैन आगमके जागरूक प्रहरी .स० सिं० जिनेन्द्रकुमार जैन गुरहा, खुरई जैन आगमके जागरूक प्रहरी धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्र सेवाके सभी क्षेत्रोंमें पं० जीकी स्तुत्य सेवा सदा स्मरणीय है। आर्षप्रणीत जिनागम एवं आध्यात्मिक ग्रन्थोंके अध्ययन, मनन और चिन्तनमें ८४ वर्षकी इस आयमें भी पं० जी सतत संलग्न हैं । सावधानीसे अपनी लेखनीसे जनसाहित्य एवं रचनायें, समाज एवं विद्वानोंको अर्पित कर रहे हैं और उनका आह्वान कर रहे हैं कि वे जिनागमके प्रतिकूल प्रचार व आचरण न करें, जो कि आजकल चल पड़ा है । यह अनेकान्त विरोधी "एकान्त मत" समाजमें अनेक विवादों-विकारों को जन्म दे रहा है । सन् ६३ में जयपुर (खा निया) में इन नये' व 'पुरातन" विचार वाले विद्वानोंके मध्य तत्त्व चर्चाका आयोजन निष्कर्ष पूर्ण नहीं रहा। फलतः आगम अनुकूल विद्वानोंको “शंका पक्ष" व इन “एकान्तियों" समाधान पक्ष-बना डाला है, जिससे तत्त्व निष्पन्न होनेकी अपेक्षा उलझ गया । इसी हेतुसे पं० जीने व अन्य सभाजके विद्वानोंने इस "सोनगढ़" पक्षकी समीक्षा करनेका संकल्प लेकर लेखन कार्य किया है । “खानियाँ तत्त्व चर्चाको समीक्षा", "जनशासनमें निश्चय और व्यवहार", "पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी" तथा समय-समय पर जैन पत्रिकाओंमें प्रचुर शोधपूर्ण लेख लिखे हैं । उनकी कृतियाँ गम्भीर मनन, चिन्तन, अध्ययनको विषय हैं जो कि निष्पक्ष भावसे पढ़ने पर "बोध गम्य' है । जैन संस्कृति-संस्कार अक्षुण्य रहे । श्रद्धेय पं० जी दीर्घायु हों यही शुभ कामना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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