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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १४९ विनाश आदि कार्य भी उत्पन्न हो जाते हैं । इसी तरह क्रोधकर्मका उदय रहते क्रोध, मान, माया और लोभरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट जीवकी क्रोधपर्याय होते-होते यदि मान, माया या लोभ कर्मका उदय हो जावे तो क्रोध पर्याय रुककर उस जीवकी यथायोग्य मान, माया या लोभ पर्याय होने लगती है। इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था निर्णीत होती है। ३. पकनेकी योग्यता विशिष्ट आम्रफलका पाक ऋतुके अनुसार समयपर होनेका नियम है, परन्तु उस आम्रफलको यदि कृत्रिम ऊष्माका योग मिल जावे तो वह असमयमें भी पक जाता है। इसी प्रकार मरणकी योग्यताविशिष्ट संसारी जीवका मरण आयुकर्मके स्थितिबन्धके अनुसार आयुकी समाप्तिपर होना निश्चित है, परन्तु यदि विषपान आदिका योग मिल जावे तो जीव असमयमें भी मरणको प्राप्त हो जाता है । इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था सिद्ध होती है। यहाँ 'असमय' शब्दका अर्थ नियतसमयसे भिन्न अनियतसमय ही ग्रहण करना युक्त है, समयसे भिन्न अन्य निमित्तकारणभूत पदार्थ ग्रहण करना युक्त नहीं है-जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है। इतना अवश्य है कि जिस पर्यायकी उत्पत्ति उस अनियतसमयमें होती है वह अनुकूल निमित्तकारणसापेक्ष ही होती है। उत्तरपक्षकी दृष्टिमें स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिकी व्यवस्था : १. समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारको ३०८ से ३३१ तककी गाथाओंकी आत्मख्याति-टीकाके पूर्वोक्त कथनके अंशभत दोनों "क्रमनियमितात्मपरिणामैः" पदोंमें विद्यमान "क्रमनियमित" शब्दका डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्लने अपनी "क्रमबद्धपर्याय" पुस्तकमें पृष्ठ १२३ पर यह स्पष्टीकरण किया है कि "क्रमनियमितशब्दमें क्रम अर्थात क्रमसे (नम्बरवार) तथा नियमित अर्थात निश्चित । जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी इसमें फेरफार नहीं हो सकता। उत्तरपक्ष भी यही मानता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि उत्तरपक्ष आत्मख्याति-टीकाके उक्त क्रमनियमित शब्दके आधारपर प्रत्येक स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिका नियत समय मानकर अपना यह मत निश्चित करता है कि सभी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्ति स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे . नहीं होती। २. सम्पूर्ण द्रव्योंको कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें सर्वज्ञके केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध ही प्रतिभाषित होती हैं, अतः उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही मानना युक्त हैं, अन्यथा अर्थात् उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको अक्रमबद्ध अर्थात अनियतक्रमसे स्वीकार करनेपर प्रत्येक द्रव्यकी कालिक उन पर्यायोंकी केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असम्भव हो जायेगा, फलतः इस तर्कके आधारसे वह अपना यह मत निश्चित करता है कि स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति स्व-प्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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