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________________ १४८ : सरस्वतीवरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी अन्य आगमवचनों द्वारा पुष्टि : समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकामें "जीवो हि तावत क्रमनियमितात्मपारिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः" यह कथन पाया जाता है। इस कथनमें विद्यमान 'जीव एव नाजीवः" और "अजीव एव न जीवः" इन दोनों अंशोंसे ज्ञात होता है कि जीवकी पर्याय अजीवकी सहायतापूर्वक और अजीवकी पर्यायें जीवकी सहायतापूर्वक उत्पन्न होती हैं । यदि ऐसा न माना जावे, तो उक्त कथनके ये दोनों अंश निरर्थक हो जायेंगे, क्योंकि जीवको अजीवरूप और अजीवको जीवरूप माननेका प्रसंग तभी उपस्थित होता है जब जीवकी पर्यायोंका अजीवके साथ और अजीवकी पर्यायोंका जीवके साथ निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणसम्बन्ध माना जावे। समयसार-कलश १९५ में स्पष्ट कहा गया है कि जीवका प्रकृतियोंके साथ जो बन्ध होता है वह जीवके अज्ञानभावका ही माहात्म्य है । समयसार की गाथा ३१२-१३ में तो और भी स्पष्ट लिखा है कि जीव प्रकृतिके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होता है व प्रकृति जीवके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होती है। समयसारकी गाथा ८०, ८१ और १०५ तथा प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी गाथा ७७ से भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंका स्पष्ट समर्थन होता है। इसके अलावा जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षा (भाग-१) के अन्तर्गत प्रश्नोत्तर-१की समीक्षामें मैंने तर्क और आगम प्रमाणोंके आधारसे निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन (अप्रेरक) दो भेद बतलाकर उनके लक्षण इस रूपमें निर्धारित किये हैं कि प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ उपादानके कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों तथा उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी उसी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों। इन लक्षणोंके अनुसार वहींपर मैंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रेरकनिमित्तोंके बलसे कार्य आगे-पीछे भी किया जा सकता है तथा अनुकल उदासीन निमित्तोंका भी यदि उपादानको सहयोग प्राप्त न हो तो उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति नहीं होती है। इससे भी निर्णीत होता है कि निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर ही स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा किया जाता है १.पठनकी योग्यताविशिष्ट शिष्यकी पठन क्रिया प्रेरकनिमित्तकारणभूत अध्यापककी सहायतासे होती है, उसकी सहायताके बिना नहीं होती । तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत प्रकाशका अभाव हो तो न अध्यापक पढ़ा सकता है और न शिष्य पढ़ सकता है । इसी प्रकार चलनेकी योग्यताविशिष्ट रेलगाड़ी प्रेरकनिमित्तकारणभूत इंजनके चलनेपर ही चलती है, उसके अभावमें नहीं चलती, तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत रेलपटरोका सहयोग प्राप्त न हो तो न इंजन चल सकता है और न रेलगाड़ी चल सकती है। इस विवेचनके अनुसार स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारकी व्यवस्था निश्चित होती है। २. प्रेरक निमित्तकारणभूत कुम्भकार अन्य प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणोंकी सहायतापूर्वक घटरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट मिठीसे क्रमशः स्थास, कोश और कुशल पर्यायोंकी उत्पत्तिपूर्वक ही संकल्पित घटको उत्पन्न करता है, तथा आवश्यक होनेपर वह कुम्भकार उसी मिट्टीसे विवक्षित सकोरा आदिको भी उत्पन्न करता है। इतना ही नहीं, यदि दंडका आघात आदि कारण मिल जायें तो चाल कार्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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