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________________ आगममें कर्मबन्धके कारण समयसारमें बन्धके कारणोंका उल्लेख : सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९॥ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो दु तेरस वियप्पो । मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥११०॥ इन दो गाथाओंमें आचार्य कुन्दकुन्दने सामान्यतया मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चारके रूपमें बन्धके कारणोंका उल्लेख किया है। तथा विस्तारसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ , उपशान्तमोह, क्षीणमोह और मयोगकेवली इन तेरह गुणस्थानोंके रूपमें कथन किया है। इसका आशय यह है कि मिथ्यात्वादि चार बन्धके साधकतम कारण हैं और मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थान बन्धके अवलम्बन कारण हैं । अर्थात जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके द्वारा होता है तथा वह तेरह गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें यथायोग्य रूपमें होता है । बन्धका मूलकारण योग जीवमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाके आधारपर जो हलन-चलन रूप क्रियाव्यापार होता है वह योग है । वह योग जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणाम है और प्रथम गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण होता रहता है। वह एकेन्द्रिय जीवोंमें कायवर्गणाके अवलंबनसे, द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें कायवर्गणा और वचनवर्गणाके अवलम्बनसे तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें काय, वचन और मन इन तोनों वर्गणाओंके अवलम्बनसे पृथक-पृथक होता है। योगका कार्य लोकमें व्याप्त ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकारकी कर्मवर्गणाओंका उक्त सभी योगोंके आधारपर आस्रव होकर वे कर्मवर्गणाएँ, जो जीवके साथ सम्बद्ध होती है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं और प्रत्येक कर्मवर्गणा जितने परिमाणमें जीवके साथ बद्ध होती है उसे प्रदेशबन्ध कहते है । इस तरह योगका कार्य प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध निर्णीत है। गणस्थानोंमें योगोंकी विशेषता आठों कर्मोकी आगममें १४८ प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं। उनमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन दोको छोड़कर शेष १४६ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। इनमेंसे प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें योगकी प्रतिकूलताके कारण नामकर्मकी तीर्थकर, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारकसंघात और आहारकआंगोपांग इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। फलतः प्रथम गुणस्थानमें १४१ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धयोग्य उन १४१ प्रकृतियोंमेंसे द्वितीय गुणस्थानमें १२५ प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य हैं, क्योंकि मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्त सृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय), नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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