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________________ ९८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कि सर्वजीवराशिसे अनन्तगुणा होगा और यही प्रमाण सर्वव्यवहारकालराशिका प्रमाण कहा जाने योग्य है, कारण कि व्यवहारनाम पर्याय अथवा परिवर्तनका है और ये परिवर्तन पूर्वोक्त प्रकारसे इतने हो सकते हैं, हीनाधिक नहीं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भव्यजीव सतत मोक्ष जाते रहेंगे, फिर भी संसार जीवशून्य नहीं होगा तथा मोक्षमार्ग भी बन्द नहीं होगा । जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य इनके विषयमें ता० १६ जुलाई सन् १९३२ के "जैन जगत" में सम्पादकमहोदयने निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं-"जैन शास्त्रोंमें जीवोंके दो भेद मिलते हैं-भव्य और अभव्य । भव्योंमें मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता है, अभव्योंमें नहीं । ये भेद पारिणामिक या स्वाभाविक कहलाते हैं, परन्तु शक्ति तो सभी जीवोंमें एकसरीखी है। अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है। यदि ऐसा न होता तो अभव्योंको केवलज्ञानावरणकर्मकी जरूरत ही नहीं रहती। इसलिये भव्य और अभव्यका स्वाभाविक भेद बिलकुल नहीं जंचता। अभी तक इस विषय में मेरे निम्नलिखित विचार रहे हैं। अभव्योंकी कल्पना तीर्थंकरोंके महत्त्वको बढ़ानेके लिये है." । आगे इसीकी पुष्टि की गयी है। लेकिन बात ऐसी नहीं है । शास्त्रोंमें जो भव्य और अभव्यका भेद बतलाया गया है वह वास्तविक है। और मोक्ष जानेकी योग्यता व अयोग्यतासे ही किया गया है अर्थात जिसमें मोक्ष जानेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें नहीं है वह अभव्य है। शंका-जबकि भव्योंकी तरह अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है तब उनमें मोक्ष जानेकी योग्यता क्यों नहीं है ? उत्तर-अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका तात्पर्य यह है कि जीवोंका जीवत्त्व (चैतन्य) पारिणामिकभाव माना गया है और संपूर्ण जीवोंका असाधारण स्वरूप होनेसे वह संपूर्ण जीवोंमें पाया जाता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि उसी जीवत्वके विशेष हैं । इसलिये जीवत्त्वके सद्भावमें इनकी सत्ता संपूर्ण जीवमें अनायास सिद्ध हो जाती है। मोक्ष जानेकी योग्यताका मतलब केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यतासे है, कारण जीवोंके ज्ञानादिगुण कर्मोंसे आच्छादित हैं। इसलिये भव्य और अभव्यका लक्षण इस प्रकार हो जाता है, जिस जीवमें केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें यह योग्यता नहीं है वह अभव्य है । अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका अर्थ इतना ही करना चाहिये कि अभव्योंमें कर्मोंसे आच्छादित केवलज्ञानका सद्भाव है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अर्थ कि अभव्योंमें भी केवलज्ञानके प्रकट होनेकी योग्यता है, असंगत ही है । शंका-भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें समानरूपसे केवलज्ञान कर्मोसे आच्छादित रहता . है, ऐसी हालतमें भव्योंका केवलज्ञान प्रकट हो, अभव्योंका नहीं, यह भेद कैसे हुआ? उत्तर-केवलज्ञानादिकी प्रकटता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके मिलनेपर होती है-(१) द्रव्य-जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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