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________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ६९ या निरुपयोगी मानना मिथ्या है और चकि कर्मकी कोई परिणति कदापि जीवकी परिणति नहीं बनती है, इसलिए कर्मको जीवकी औदयिकादि परिणतियोंका उपादानकारण या निश्चयकारण मानना भी मिथ्या है । इस प्रकार अब तकके विवेचनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ जानी चाहिये कि चरणानुयोगके प्रकरणमें मोक्षकार्यकी दृष्टिसे जो निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गका कथन किया गया है वह कथन निश्चय और व्यवहार शब्दोंके आधारपर क्रमशः निश्चयमोक्षमार्गमें मोक्षकी साक्षात कारणताके और व्यवहारमोक्षमार्गमें मोक्षकी परंपरया कारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है। इसी प्रकार वहीं पर जो निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रका तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान, और व्यवहारसम्यक्चारित्रका कथन किया गया है वह कथन भी निश्चय और व्यवहार शब्दोंके आधार पर क्रमशः निश्चयसम्यग्दर्शनादिमें तो कार्यताके और व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकमें कारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है। इसके अतिरिक्त करणानयोगके प्रकरणमें जीवके बन्ध और मोक्षरूप अथवा जीवकी औदयिकादिपरिणतिरूप कार्य और उसके अभावरूपकारणकी दृष्टि से जो नयचक्रकी उपर्युक्त २३५ वीं गाथाके अनुसार निश्चयकारण और व्यवहारकारणके रूपमें दो कारणोंका कथन किया गया है वह कथन निश्चयशब्दके आधार पर जीव स्वयंमें उपादानकारणताके और व्यवहारशब्दके आधार पर कर्ममें यथायोग्य उदयादिरूपसे निमित्तकारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है । अब आगे हम इस विषय पर विचार करना चाहते हैं कि द्रव्यानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्या अर्थ ग्रहण किया गया है ? द्रव्यानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ लेखके प्रारम्भमें हमने यह भी कहा है कि द्रव्यानुयोग वह है जिसमें विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंके पृथक्पृथक् अस्तित्वको बतलानेवाले स्वतः सिद्ध स्वरूप एवं उनके परिणमनोंका विवेचन किया गया है । यहाँ प्रकृत विषय पर इसीको आधार बनाकर विचार किया जा रहा है। - जैनागममें बतलाया गया है कि पृथक-पृथक् अपनी-अपनी स्वतंत्र सद्रूपता ही वस्तुका लक्षण है। प्रत्येक वस्तुकी यह सदूपता स्वतंत्र तभी मानी जा सकती है जबकि वह स्वतः सिद्ध हो, अतः कहना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी सद्रूपता स्वतःसिद्ध है और जब प्रत्येक वस्तुकी सद्रूपता स्वतःसिद्ध है तो इस आधार पर प्रत्येक वस्तुमें निम्नलिखित चार विशेषताएं अनायास सिद्ध हो जाती हैं। प्रत्येक वस्तु अनादि है (अनादिकालसे रहती आ रही है), अनधिन है (अनन्तकाल तक रहने वाली है), स्वाश्रित है, (स्वावलम्बनपूर्ण है) और अखण्ड है (अपने-अपने स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिये हुए है।) इस विषयको पंचाध्यायीमें निम्न प्रकारसे स्पष्ट किया गया है ___ "तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादि-निधनं स्वसहायं निविकल्पं च ॥१-८॥" इस प्रकार विश्वमें अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् स्वतःसिद्ध सद्रूपताको प्राप्त संपूर्ण वस्तुओंकी संख्या अनन्तानन्त है । इनमें भी जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है, पुद्गल जीवोंकी संख्यासे भी अनन्तानन्त गुणे हैं, काल असंख्यात है और धर्म, अधर्म तथा आकाश एक-एक है। इस प्रकार ये सभी अनन्तानन्त वस्तुएँ सामान्यरूपसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके छह द्रव्य प्रकारोंमें समाविष्ट होती हैं। १. सर्वार्थसिद्धि-टीका-१-२९ । २. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । द्रव्याणि । जीवाश्च । कालश्च ।-तत्त्वार्थसूत्र ५-१, २, ३, ३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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