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________________ ६८ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ यहाँपर उपादानकारणता और निमित्तकारणताके स्वरूपका, उनकी क्रमसे निश्चयरूपता और व्यवहाररूपताका एवं दोनोंकी अपने-अपने रूपमें वास्तविकताका जो विश्लेषण किया गया है, उसका प्रकृत में उपयोग यह है कि जीवकी पूर्वोक्त औदथिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक परिणतियोंके प्रति कर्ममें जो उदयादिकके आधारपर कारणता विद्यमान है वह तो व्यवहार रूपसे अर्थात् निमित्तरूपसे है और जीव स्वयं में उन औदयिकादि परिणतियोंके प्रति जो कारणताएँ विद्यमान हैं वे निश्चयरूपसे अर्थात् उपादानरूपसे हैं तथा साथ ही ये दोनों ही कारणतायें अपने-अपने रूपमें भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक और सत्यार्थ ही हैं क्योंकि जिस प्रकार उक्त औदयिकादि परिणतियोंके प्रति जीव स्वयंकी उपादानकारणता पूर्वोक्त प्रकारसे कल्पनारोपित नहीं है उसी प्रकार जीवकी उन औदयिकादि परिणतियोंके प्रति अपनी उदयादिपरिणतियोंके आधारपर सहयोगी होनेके कारण कर्ममें विद्यमान निमित्तकारणता भी कल्पनारोपित नहीं है । इतना अवश्य है कि चूँकि उपादानकारण होनेके सबब जीव ही कार्यरूप परिणत होता है, इसलिये उपादानकारणता तो सर्वथा भूतार्थ आदि है, लेकिन निमित्तकारण होनेके सक्य चूंकि कर्म स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता, इसलिये वह कथंचित् अभूतार्थ आदि है फिर भी उपादानभूत जीवकी कार्यभूत औदयिकादि परिणतियोंमें अपनी उदयादिपरिणतियोंके आधारपर वह सहायक अवश्य होता है, अतः वह सहायकपनेकी अपेक्षा कथंचित् भूतार्थं आदि भी है। यहाँ पर इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जीवकी औदयिकादि परिणतियों के प्रति जो कर्मनिष्ठ निमित्तकारणता है वह उसकी उदयादि परिणतियोंको छोड़कर और कुछ नहीं है अर्थात् कर्मका उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूपसे परिणत होना ही जीवकी औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक परितियों के प्रति कर्मकी क्रमशः निमित्तकारणता है । ऐसा नहीं समझना चाहिये कि कर्मकी उदयादिकपरिगतियाँ अलग हैं और जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति उसमें ( कर्म में ) विद्यमान निमित्तकारणता अलग है । इसीलिये यदि इस तरहसे विचार किया जाय तो कर्मको उदयादिक परिणतियाँ उसकी अपनी स्वाश्रित या स्वात्मभूत परिणतियाँ होनेके कारण जहाँ "स्वाश्रितो निश्चयः " इस आगमवाक्यके आधारपर उसके freers हैं वहाँ कर्मकी वे ही परिणतियाँ जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति यथायोग्य रूपमें निमित्तकारणताका रूप धारण कर लेनेसे "पराश्रितो व्यवहारः " इस आगमवाक्यके आधारपर निमित्तकारणताके रूपमें उसके व्यवहारधर्म भी हैं । अब ऐसी हालत में भी यदि निमित्तकारणताकी भूतार्थता आदिके विषय में विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति कर्म में विद्यमान निमित्तकारणता जहाँ उस कर्मकी उदयादि परिणतियोंके रूपमें भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक या सत्यार्थ धर्म है वहीं उसका कर्म में उदयादि परिणतियोंसे पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व न रहनेके कारण वह कर्मका अभूतार्थ, असद्भूत, अवास्तविक या असत्यार्थ धर्म भी है । इस तरहसे भी जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति कर्मनिष्ठ निमित्तकारणता उस कर्मका कथंचित् वास्तविक और कथंचित् अवास्तिक धर्म ही सिद्ध होती है । गधेके सींग - की तरह उसे सर्वथा अभूतार्थ आदिके रूपमें कदापि नहीं माना जा सकता है । इस कथनको निचोड़ यह है कि जीवकी जो औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप परिणतियाँ हुआ करती हैं वे सब परिणतियाँ जीवकी अपनी ही परिणतियाँ हैं । इसलिये जीव इन परिणतियोंका उपादानकारण या निश्चयकारण होता है। साथ ही ये सभी परिणतियाँ क्रमशः कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होनेपर ही होती हैं, इसलिये कर्म जीवकी इन औदयिकादि परिणतियोंका अपनी उदयादिक परिणतियों के आधार पर निमित्तकारण या व्यवहारकारण होता है । चूँकि कर्मके उदयादिकके अभाव में जीवकी ये औदयिकादि परिणतियाँ कदापि नहीं होती हैं, अतः कर्मको जीवकी इन परिणतियोंमें अकिंचित्कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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