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________________ ४८ : सरस्वती-बरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ पूर्णता समझनी चाहिए । इस तरह मोक्षमार्गकी पूर्णता १४वें गुणस्थानके अन्त समयमें होनेसे उससे पूर्व जीव मुक्ति नहीं पा सकता है दूसरे उस समय निश्चयचारित्रकी पूर्णता हो जानेसे मोक्षमार्गकी भी पूर्णता हो जानेपर यह जीव फिर एक क्षणके लिए भी संसारमें नहीं ठहरता है।' क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशामिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्चारित्रको व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्र इसलिए कहा जाता है कि इनमें मोक्षकी साक्षात् कारणता नहीं है, परंपरया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्-चारित्रका कारण होकर ही मोक्षकी कारणता विद्यमान है। जैसा कि पूर्व में हम विस्तारसे स्पष्ट कर चुके हैं। इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दर्शन, क्षायिकसम्यग्ज्ञान और क्षायिक सम्यकचारित्रको निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक चारित्र इसलिए कहा जाता है कि इनमें मोक्षकी साक्षात् कारणता रहा करती है। यह बात भी हम पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट कर चुके हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यकचारित्रको व्यवहार मोक्ष-मार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्-चारित्र नामसे पुकारने में तथा औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्ज्ञान और औपशमिक व क्षायिक-चारित्रको निश्चय मोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्-चारित्र नामसे पुकारनेमें प्रकारान्तरसे यह युक्ति भी दी जा सकती है कि आगममें स्वाश्रितपनेको वस्तुका निश्चय धर्म व पराश्रित पनेको वस्तुका व्यवहार धर्म माना गया है। इस तरह औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यकज्ञान और औपशमिक व क्षायिक सम्यक चारित्र ये सभी चँ कि यथायोग्य अपने-अपने प्रतिपक्षी कोंके सर्वथा उपशम या सर्वथा क्षय हो जानेपर ही जीवमें उद्भूत होते हैं । अतः पूर्णरूपसे स्वाश्रयता पायी जानेके कारण इन्हें निश्चय नामसे पुकारना योग्य है तथा क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्-चारित्र ये सभी चूँकि अपने-अपने प्रतिपक्षी कर्मोंके सर्वघाती अंशोंके यथायोग्य उदयाभावी क्षय तथा सदवस्थारूप उपशम एवं देशघाती अंशोंके उदयके सद्भावमें ही जीवमें उद्भूत होते है, अतः पूर्ण रूपसे स्वाश्रयता नहीं पायी जाने अथवा कथंचित पराश्रयता पायी जानेके कारण इन्हें व्यवहारनामसे पुकारना योग्य है। यहाँ पर कोई कह सकता है कि द्रव्यलिंग और भावलिंगके रूपमें भी दर्शन, ज्ञान और चारित्रका वर्णन आगममें पाया जाता है। इनमेंसे तद्रूपताका अर्थ भाव-लिंग होता है और अतपताका अर्थ द्रव्यलिंग होता है। इस तरह जो जीव यथायोग्य मोहनीयकर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न रहनेके कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी भावरूपताको प्राप्त न होते हुए भी तद्रपके समान बाह्याचरण करते हैं उनमें तो द्रव्यलिंगके रूप में ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र रहा करते हैं, लेकिन जो जीव यथायोग्य मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जानेके कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी भावरूपताको प्राप्त होकर तदनकल बाह्याचरण करते हैं उनमें भावलिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र रहा करते हैं । इनमेंसे जो जीव द्रव्यलिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रके धारक हैं, वे व्यवहार मोक्ष-मार्गी और जो जीव १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृष्ठ ७१, पंक्ति १५ । तत्त्वा० श्लो० वा०, पृष्ठ ७१, पंक्ति २७ । तत्त्वार्थश्लोक वा०, पृष्ठ ७१, वार्तिक ९३, ९४ । २. आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः। -समयसार, गाथा ५७२ की आत्मख्याति टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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