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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४७ नोकषाय धीरे-धीरे कृश होकर जब दश गुणस्थानमें केवल सूक्ष्म लोभका उदय कार्यकारी रह जाता है तब वही क्षायोपशमिक-रूपताको प्राप्त व्यवहारसम्यकचारित्र सूक्ष्मसांपरायचारित्रके रूपमें अपनी चरम सीमामें पहुँच जाता है। और इस तरह दशवें गुणस्थानके अन्तमें समस्त कषायोंका यदि उपशम होता है तो ग्यारहवें गुणस्थानके प्रारम्भमें औपशमिकचारित्रके रूपमें निश्चयसम्यक्चारित्र प्रकट हो जाता है तथा दशवें गुणस्थानके अन्तमें यदि समस्त कषायोंका क्षय होता है तो १२वें गुणस्थानके प्रारम्भमें क्षायिकचारित्रके रूपमें निश्चयसम्यक् चारित्र प्रगट हो जाता है और यह क्षायिकचारित्र रूप निश्चयचारित्र १३वें तथा १४ वें गुणस्थानोंमें भी बना रहता है । जीवको जब औपशमिक अथवा क्षायिक रूपमें निश्चयचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है तब क्षायोपश मिकरूपताको प्राप्त व्यवहारसम्यकचारित्रकी समाप्ति नियमसे हो जाती है । कारण कि जीवमें प्रत्येक कर्मका यथासम्भव उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षायोपशममेंसे एक कालमें एक ही अवस्था रह सकती है, दो आदि अवस्थायें कभी एक साथ नहीं होती। इसलिए एक कर्मके उदयादिककी निमित्तताके आधारपर होनेवाले औदयिकादि भावोंका सद्भाव भी जीवमें एक साथ नहीं रह सकता है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि औपशमिकचारित्ररूप निश्चयसम्यक-चारित्र केवल ११ वें गुणस्थानमें ही रहता है, कारण कि जीव अन्तर्मुहर्तके अल्पकालमें ही इससे पतित होकर यथायोग्य कषायका उदय हो जानेसे फिर क्षायोपशमिकचारित्ररूप व्यवहार चारित्रमें आ जाता है। इस तरह क्षायिक चारित्ररूप निश्चयचारित्र ही ऐसा है जो १२वें में उत्पन्न होकर १३वें और १४वें गणस्थानोंमें भी अपना सद्भाव कायम रखता है । अब यह प्रश्न हो सकता है कि जब जीवको पूर्वोक्त प्रकार अधिक-से-अधिक सप्तम गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दर्शनरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती है और १२वें गुणस्थानके प्रारम्भमें क्षायिकचारित्ररूप निश्चयसम्यग्चारित्रकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर १२वें गुणस्थानमें ही जीव मुक्त क्यों नहीं हो जाता है ? इसका समाधान निम्न प्रकार है १२ वें गुणस्थानमें क्षायिकचारित्रकी उपलब्धि हो जानेपर भी जीवके मुक्त न होनेका एक कारण तो यह है कि उस समय तक उसे ज्ञानावरणकर्मका पूर्णतः क्षय न होनेसे क्षायिकज्ञानरूप निश्चयसम्यग्ज्ञानको प्राप्ति नहीं हो पाती है। दूसरा कारण यह है कि १२वें गुणस्थानवर्ती क्षायिकचारित्ररूप निश्चयचारित्रमें जीव यद्यपि भावात्मक चारित्रके रूप में पूर्ण स्वावलम्बी हो जाता है परन्तु तब भी उसमें परावलम्बनपूर्ण योगात्मक क्रिया तो होती ही रहती है क्योंकि उसके भी मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे प्रदेशपरिस्पन्दन होता है। अतः उसके स्वावलम्बनके रूपमें निश्चयचारित्रकी पूर्णता नहीं हो पाती है। यह योगात्मक क्रिया केवलज्ञानरूप क्षायिकनिश्चयसम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेके अनन्तर भी जीवके हुआ करती है । अतः केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें जीव मुक्त नहीं हो पाता है । इसी प्रकार केवलज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर जब जीवकी योगात्मक क्रिया भी समाप्त हो जाती है तब जीवको मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। इसका कारण यह है कि जीव द्रव्यात्मकदृष्टिसे उस समय भी परावलम्बी रहा करता है क्योंकि अघाती कर्मोंका उदय उस समय भी उसे प्रभावित किये रहता हैं । इस तरह यह निर्णीत होता है कि १४वें गुणस्थानके अन्त समयमें अघाती कर्मोंका भी पूर्णतया क्षय हो जानेसे जब जीव द्रव्यात्मकदृष्टिसे भी पूर्ण स्वावलम्बी हो जाता है तभी उसके निश्चयसम्यक्चारित्रकी १, २, ३, ४ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७३, ४६७, ४७४ । ५. तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ० ७०, पंक्ति ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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