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________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : ३५ यद्यपि अणुव्रत और महाव्रत तथा समिति, गुप्ति, धर्म एवं तपश्चरण आदि बाह्यक्रियायें उस-उस कषायके उदय और अनदयके अनुसार पूर्वोक्त सम्यग्दर्शनसे रहित कोई-कोई मिथ्यादष्टि जीव भी करने लगते हैं । इतना ही नहीं, इन क्रियाओंको संलग्नतापूर्वक करनेपर उनमेंसे कोई-कोई जीव यथासंभव स्वर्गमें नववें ग्रैवेयक तक जन्म भी धारण कर लेते हैं। परन्तु इतनी बात अवश्य है कि इन क्रियाओंकी निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षप्राप्तिरूप सार्थकता उक्त सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेपर ही हुआ करती है अन्यथा नहीं, क्योंकि जीव जब तक मिथ्यादष्टि बना रहता है तब तक उसके अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न हो सकनेके कारण यथायोग्य अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होना असम्भव ही रहा करता है जब कि अणुव्रत और महाव्रतरूप व्यवहारसम्यक् चारित्र यथायोग्य इन कषायोंका क्षयोपशम होनेपर ही जीवको प्राप्त हुआ करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जब जीवके अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय समाप्त होकर प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय कार्यरत हो जाता है तब वह जीव व्यवहारसम्यक्चारित्रके रूपमें अणुव्रतोंको धारण करता है। और जब जीवके अप्रत्याख्यानावरण कषायके साथ-साथ प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय भी समाप्त होकर मात्र संज्वलन कषाय व नोकषायका उदय कार्यरत हो जाता है तब वह जीव व्यवहारसम्यक्चारित्रके रूपमें महाव्रत धारण करता है। यह स्थिति अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम' के अभावमें मिथ्यादृष्टि जीवके कदापि संभव नहीं है । अतः उसके (मिथ्यादृष्टि जीवके) यथायोग्य कषायके अनुदयके साथ-साथ यथायोग्य कषायके उदयमें बाह्य क्रियाके रूपमें अणुव्रत, महाव्रत आदिकी स्थितिका होना तो संभव है। लेकिन जब तक उस जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न हो सकनेके कारण यथायोग्य अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उदय-समाप्ति असंभव होनेसे अणुव्रत, महाव्रत आदिकी स्थितिको व्यवहारसम्यकचारित्रका रूप प्राप्त होना संभव नहीं है। यहाँपर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेपर नियमसे अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जानेपर भी सामान्यतया यह नियम नहीं है कि उसके अणुव्रत अथवा महाव्रतरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र अथवा अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उदयसमाप्ति हो ही जाना चाहिये । किन्तु नियम यह है कि जिस सम्यग्दृष्टि जीवके अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंका उदय समाप्त हो जाता है उसके ही यथायोग्य अणुव्रत व महाव्रतरूप व्यवहारसम्यकचारित्रकी स्थिति उत्पन्न होती है, शेष सम्यग्दृष्टि जीव तब तक अवती ही रहा करते हैं, जब तक उनके अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंका उदय समाप्त नहीं हो जाता है। निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शनादिकका यह सम्पूर्ण विवेचन हमने चरणानुयोगकी दृष्टिसे ही किया है । इस तरह इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चरणानुयोगमें सम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गके रूपमें जो दो प्रकारके मोक्षमार्गका कथन किया गया है उसका आशय निश्चयमोक्षमार्गको तो मोक्षका साक्षात् कारण बतलाया है और व्यवहारमोक्षमार्गको उसका (मोक्षका) परंपरा अर्थात निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर कारण बतलाना है। इसी प्रकार उसका आशय निश्चयसम्यग्दशन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रको तो कार्यरूप तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, १. गोम्मटसार जोवकाण्ड, गाथा ३० । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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