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________________ ३४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्रके मध्यमें स्थान दिया गया है, इसका एक कारण तो यह है कि जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर ही उसके उक्त प्रकारके ज्ञानकी सम्यकरूपता अर्थात सार्थकता सिद्ध होती है। और दूसरा कारण यह है कि जीवको उसकी (उक्त प्रकारके ज्ञानकी) उपयोगिता मध्यदीपक न्यायसे सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यक्चारित्रपर आरूढ़ होनेके लिए भी सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त एक तीसरा कारण यह भी है कि मोक्षमार्गके रूपमें सम्यग्दर्शनकी पूर्ति सर्वप्रथम अर्थात् चतुर्थगुणस्थानसे लेकर अधिक-से-अधिक सप्तमगुणस्थान तक नियमसे हो जाती है, सम्यग्ज्ञानकी पूर्ति उसके बाद तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें होती है और सम्यक्चारित्रकी पूर्ति सम्यग्ज्ञानको पुतिके अनन्तर चौदहवें गुणस्थानके अन्त समयमें ही होती है । इस विषयको आगे स्पष्ट किया जायगा। व्यवहारसम्यक्चारित्रका स्वरूप बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाली समस्त कषायजन्य पाप और पुण्यरूप प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर अपने आत्मस्वरूपमें लीन (स्थिर) होनेरूप निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिए यथाशवित अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप आदि क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति होने लग जाना व्यवहार सम्यक्चारित्र है। उक्त प्रकारके निश्चयसम्यक्चारित्रका अपर नाम यथाख्यातचारित्र है तथा उसे वीतरागचारित्र भी कहते हैं । उसकी प्राप्ति जीवको यद्यपि उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होकर ११वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर भी होती है और क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होकर १२वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर भी होती है। परन्तु ११वें गुणस्थान और १२वें गुणस्थानके निश्चयसम्यक्चारित्रमें परस्पर अन्तर पाया जाता है । अर्थात् उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होकर ११वें गणस्थानमें पहुँचने वाला जीव अन्तर्महर्तके अल्पकालमें ही पतनकी ओर उन्मख हो जाता है और तब उसका वह निश्चयसम्यक चारित्र भी उसी समय समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर १२वें गणस्थानमें पहुंचने वाला जीव कदापि पतनकी ओर उन्मुख नहीं होता। इसलिए उसका वह निश्चयसम्यकचारित्र स्थायी रहा करता है साथ ही वह जीव अन्तर्मुहुर्तके अल्पकालमें ही १२वें गुणस्थानसे १३वें गुणस्थानमें पहुँच कर नियमसे सर्वज्ञताको प्राप्त कर लेता है। मोक्ष-मार्गके प्रकरणसे १२वें गुणस्थानमें प्राप्त होने वाले स्थायी निश्चयचारित्रको ही ग्रहण किया गया है । यहाँपर एक बात हम यह कह देना चाहते हैं कि उपर्युक्त निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिए हो चतुर्थ गुणस्थानका अविरतसम्यग्दृष्टि जीव मुमुक्षु होकर पुरुषार्थ करके पांचवें गुणस्थानमें अणुव्रत धारण करता है तथा इससे भी आगे बढ़कर छठे गुणस्थानमें वह महाव्रत धारण करता है। इतना ही नहीं, घोर तपश्चरण करके आगे बढ़ता हुआ वह सातवें गुणस्थानमें शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त होकर आत्मपरिणामोंकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यथायोग्य विशुद्धिके अनुसार उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होता है या क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होता है। इस तरह कहना चाहिये कि जब तक उस जोवको उक्त निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक वह पाँचवें और छठे गुणस्थानोंमें बुद्धिपूर्वक और सातवेंसे लेकर दशवें तकके गुणस्थानोंमें अबुद्धिपूर्वक उपर्यक्त व्यवहारसम्यक्चारित्रमें ही प्रवृत्त रहता है। इस व्यवहारसम्यक चारित्रका भी अपर नाम संक्षेपसे सरागचारित्र और विस्तारसे सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपरायरूप चारित्र है। १. रत्नकरंडकश्रावकाचार, श्लोक ९७। २. प्रवचनसार, गाथा ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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