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________________ शोष-कण गोलापूर्व जातिके परिप्रेक्ष्यमें प्रो० यशवन्त कुमार मलैया प्राध्यापक-कम्प्यूटर साइंस विभाग, कोलो रैडो स्टेट यूनिवर्सिटी, फोर्ट कॉलिंस, सी ओ 80523 (303) 491-7031 [विद्वान् लेखकने अपने इस शोध-लेखमें कई महत्त्वपूर्ण तथ्योंको प्रस्तुत किया है, जो न केवल अनुसन्धित्सुओंके लिए दिशा-बोधक है, अपितु इतिहासके मनीषियोंके लिए भी विमर्श-योग्य हैं । उनसे लेखककी व्यापक मनीषा और गहरा चिन्तन प्रकट होता है । आशा है इस शोध-निबन्धसे आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके शब्दोंमें 'ऐतिहासिक दृष्टिसे अति उपयोगी एक कमीकी पूर्ति हो सकेगी।-प्र०सं०] भूमिका सामाजिक विभाजन केवल भारतमें ही सीमित नहीं है । हर समुदायमें समाज किसी न किसी कारणसे बंटा हुआ है । भारतमें यह जाति-व्यवस्थाके रूपमें काफी विकसित व प्रभावशाली स्थितिमें स्थित है । मानव जातिके विकासके अध्ययनमें जाति-व्यवस्थाका विशेष महत्त्व है। अन्य समुदायोंके विभाजनमें जो गुण पाये जाते है, उन पर जाति-व्यवस्थाके अध्ययनसे काफी प्रकाश पड़ता है। भारतमें व भारतके बाहर, अनेक विद्वानोंने जाति-व्यवस्थाके कई पक्षोंका अध्ययन किया है। संबंधित साहित्यको देखते हुए, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस व्यवस्थाके कई पक्ष अभी ठीकसे नहीं समझे जा सके है। विशेषतौर पर जाति व्यवस्थाके ऐतिहासिक उद्भव व विकासका वैज्ञानिक अध्ययन काफी कम हुआ। ___इतिहासका वैज्ञानिक अध्ययन अक्सर राजवंशोंके आधार पर हुआ है। राजवंशों व राज्योंके इतिहासका महत्त्व स्वाभाविक है। परन्तु अक्सर सामान्य जनतासे संबंधित इतिहास पर ध्यान कम दिया जाता है। बहुतसी सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक शक्तियोंका जो अलग-अलग कालमें प्रभाव पड़ा है, वह राजवंशके इतिहासमें दृष्टव्य नहीं है । भारतके सामाजिक इतिहासमें जाति-व्यवस्थाका उचित अध्ययन न होनेसे बहुतसे अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। जातियोंकी उत्पत्ति व विकास संबंधित जो साहित्य उपलब्ध है, उसमेंसे बहुतसा किसी विशेष उद्देश्यको लेकर लिखा गया है। इस कारणसे किसी भी वैज्ञानिक अध्ययनमें इस सामग्रीका उपयोग काफी सावधानीसे किया जाना चाहिये। अक्सर किसी एक जातिको ऊँचा दिखाने का प्रयास किया गया है। यह प्रवृत्ति सामान्य लेखकोंमें ही नहीं, विद्वानोंमें भी देखी जा सकती है। चारणों व भाटोंने हरएक राजपूतवंशकी उत्पत्ति या तो रघुवंशी रामचन्द्रसे या यदुवंशी श्रीकृष्णसे बताई है। चारणों आदि को ऐतिहासिक तथ्योंमें कुछ फेर-बदल करने में संकोच नहीं था। लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि अंबेडकर जैसे. लेखकने शूद्रोंकी उत्पत्ति क्षत्रियोंसे सिद्ध करने का प्रयास किया था। प्रस्तुत लेखका उद्देश्य एक विशेष जातिको उदाहरण के रूपमें लेकर उसका अध्ययन करना है । गोलापूर्व जैन जातिकी उत्पत्ति व विकासके संबंधमें जो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रश्न हैं, उनपर विचार किया गया है । जैसा कि आगे प्रस्तुत है, यह अध्ययन तुलनात्मक है। अन्य जैन व हिन्दु जातियोंके अध्ययनके बिना अनेक प्रश्नोंका समाधान असंभव था। किसी भी ऐतिहासिक अध्ययनमें किसी भी धारणाको निस्संदेह प्रमाणित कर सकना असम्भव है। फिर भी लेखकका विश्वास है कि इस अध्ययनसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। २-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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