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________________ १०२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर ध्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उसने सागरके पं० ज्वालाप्रसाद ज्यौतिषी व पदमनाभ तैलंगको बिना अपराधके गनाहखानेमें भेज दिया था। इसका इन्होंने विरोध किया और उसके द्वारा निर्धारित कार्यक्रममें ये सम्मिलित नहीं हुए। तो उक्त सुपरिन्टेन्डेन्ट जेलर माधवरावके साथ इनके बैरकमें आया और इनसे कहा कि कार्यक्रममें क्यों सम्मिलित नहीं हुए, क्या तुम्हें भी गुनाहखाने में जाना है ?' इन्होंने उत्तर दिया कि 'मैं ज्वालाप्रसाद ज्यौतिषी व पद्मनाभ तैलंगको गुनाहखाने में भेजनेका विरोध करता हूँ ? तब उसने जेलरसे कहा कि 'इन्हें भी गनाहखानेमें भेज दो।' इस तरह इन्हें गुनाहखानेमें भेज दिया गया और इनकी 'बी' श्रेणीको बदलकर 'सी' श्रेणी कर दी गयी तथा 'बी' श्रेणीकी सारी सुविधाएँ 'सी' श्रेणीमें परिवर्तित कर दी गयीं। किन्तु बंशीधरजीने अन्याय पक्षका विरोध करना नहीं छोड़ा और न सुपरिन्टेन्डेन्टसे माफी मांगी। यह थी उनकी न्यायनिष्ठा ।। तीसरी घटना इनके गहस्थ-जीवनकी है। बंशीधरजीका विवाह बीनामें शाह मौजीलालजीकी एकमात्र सुपुत्री लक्ष्मीबाईके साथ सन् १९२८ में हुआ था। शाहजी चाहते थे कि बंशीधरजी बीनामें घरपर ही रहें। इन्होंने कर्तव्यको दृष्टिसे अपने श्वसुर साहब (शाह मौजीलालजी) की कठिनाईको ध्यानमें रखकर बीनामें रहना स्वीकार कर लिया। किन्तु उनसे लोन लेकर कपड़ेका व्यवसाय करनेका निर्णय किया । उनका यह वस्त्रव्यवसाय आज करीब साठ वर्षसे सुचारुरीत्या चल रहा है । अब तो उनके सुयोग्य दो पुत्रोंने उसे सम्हाल लिया है और अपनी योग्यता एवं पिताजीके मार्ग दर्शनमें उसे कई गुना बढ़ा लिया है। तथा उनकी ही तरह न्याय-निष्ठा एवं प्रतिष्ठाको बना रखा है । यह है पं० बंशीधरजीका स्वाभिमान और न्याय्यजीवनकी प्रतिष्ठा। ध्यातव्य है कि बंशीधरजीने वस्त्र-व्यवसायी होकरके भी अपने ज्ञानका निस्पहभावसे उपयोग करना नहीं छोड़ा। प्रवचना करना, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें अनुसन्धान एवं चिन्तनपूर्ण लेख लिखना, संस्थाओंका योग्यतापूर्वक संचालन करना, सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय कार्योंमें भाग लेना, आरम्भसे अबतक, ये सभी प्रवृत्तियाँ उनकी चाल हैं। संस्कृति और सिद्धान्तपर कहींसे कोई बार होता है तो वे उसके निराकरणके लिए उद्यत रहते हैं। सोनगढ़ की ओरसे प्रचारित एवं प्रसारित एकान्त अध्यात्मको वे जैनदर्शनके अनेकान्तवाद और स्याद्वादके प्रतिकूल मानते है। वे ही क्यों, सारा जैनागम और दि० जैन परम्परा उसके विरुद्ध है। निमित्त अकिंचित्कर है आदि सोनगढ़ की मान्यताएँ आगमविरुद्ध है। पं. बंशीधरजीने आगमका पक्ष लेकर इन मान्यताओंका दृढ़तासे निरसन किया है। पं० बंशीधरजी निश्चय ही गम्भीर चिन्तक और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्वके स्वामी हैं । न्यायप्रियता और स्वाभिमान उनके जन्मजात गुण हैं । श्रद्धा-सुमन .पं० शोभालाल जैन, साहित्याचार्य, जयपुर पंडित बंशीधर व्याकरणाचार्यजीसे मेरा प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं रहा है, लेकिन उनके द्वारा लिख गये गहन सैद्धान्तिक एवं आध्यात्मिक लेखोंसे जो बंध, संवर और निर्जरा सम्बंधी तिकड़ीको समझाने एवं सुलझाने में सच्चे गुरुके समान कार्य कर रहे है । दुसरा सम्बंध, मेरा पूज्यनीय डॉ दरबारीलालजी कोठियाके माध्यमसे है। जैन जगतके अदभत नैयायिकके रूपमें ख्याति प्राप्त डॉ० कोठियाजी साहब इनके भतीजे हैं। अतः पंडितजीके विषयमें कुछ कहना सूर्यको दीपक दिखाना है। ऐसे महान व्यक्तित्त्वके अभिनन्दनके लिये समाजका अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशित कर उनकी सेवामें प्रस्तुत करना अपनी कृतज्ञता प्रकट करना है । ऐसे मंगल अवसर पर मैं भी उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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