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________________ ७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ होनेपर शिरका एक सफेद बाल दिखने मात्रसे गृहत्यागका भाव हो जाता है और प्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम न होनेपर शिरके समस्त बाल सफेद हो जानेपर भी गृहत्यागका भाव उत्पन्न नहीं होता। अन्तरङ्गकारणके होनेपर बाह्यकारण कुछ भी हो सकता है । जिनागममें अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणकी अनुकूलताको समर्थ कारण कहा गया है और समर्थकारणसे ही कार्य की उत्पत्ति कही गई हैं। इस बातको लेखकने स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्ययके भेदसे स्पष्ट किया है। द्रव्यमें कार्यरूप परिणत होनेकी निजकी योग्यता स्वप्रत्यय है और स्व तथा पर-के प्रत्यय-कारणसे जो होता है उसे स्वपरप्रत्यय कहा है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यमें जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन है वह मुख्यतः स्वप्रत्यय है और उपचारतः कालद्रव्यके सहयोग पर निर्भर है। लेखकने जोर देकर इस बातको सिद्ध किया है कि मात्र परप्रत्ययसे कोई कार्य नहीं होता। 'निष्क्रियाणि च' सूत्रकी व्याख्यामें पूज्यपाद और अकलंक स्वामीने प्रश्न उठाया है कि क्रियारहित द्रव्यमें उत्पादादि किस प्रकार होंगे? और उनके न होनेपर उसमें द्रव्यत्व कैसे संघटित होगा ? इस प्रश्नका समाधान उन्होंने स्वप्रत्ययसे किया है। स्वप्रत्ययमें अगुरुलघुगुणको स्वीकारा है और स्व-परप्रत्ययमें कालद्रव्य और अश्व, महिष आदिकी गतिको । ठीक है कि जीव और पदगलमें गति और स्थितिकी योग्यता निजकी हैं। पर धर्म और अधर्म द्रव्यका सहकार उनकी गति और स्थितिमें अनिवार्य आवश्यक है । अतः कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तकी अकिंचित्करता-कार्यकारणव्यवस्थाके प्रतिकूल है । जिनागममें इसे स्वीकृत नहीं किया गया है । __ उपादान और उपादेय भाव एक द्रव्यमें बनता है और निमित्त-नैमित्तिकभाव दो द्रव्योंमें बनता है । समयसारमें स्वीकृत किया गया है कि जीवके रागादि भावका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्यरूप कार्मणवर्गणा कर्मरूप परिणमन करती है और पौद्गलिक-चारित्रमोहकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर जीवमें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं। फलतः कर्मका उपादानकारण कार्मणवर्गणा है और निमित्तकारण जीवका रागादिभाव । इसी प्रकार रागादिभावका उपादानकारण आत्मा है और निमित्तकरण चारित्रमोहका उदय । इस निमित्तनैमित्तिकभावको स्वीकृत करते हए भी यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा कर्मरूप और कर्म आत्मारूप परिणमन नहीं करते । अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यरूप परिणमन हो भी नहीं सकता. क्योंकि उनमें अत्यन्ताभाव है। इस निमित्तनैमित्तिक-~-कार्यकारणभावको यदि स्वीकृत नहीं किया जाता है तो सप्ततत्त्वकी मान्यता, छह द्रव्योंकी पारस्परिक उपयोगिता, स्वभाव-विभावकी परिभाषा, कर्मबन्ध और संवरके विविध कारणोंका निर्देशन सिद्ध नहीं हो सकता और उसके सिद्ध न होनेपर जैनदर्शनका प्रासाद ढह जावेगा। इन सभी बातोंका वर्णन लेखकने इसमें युक्ति और आगमके आधारपर बड़ी कुशलतासे किया है। ग्रन्थके अन्तमें क्या उपादान कारण ही कार्यका नियामक होता है ?' इस शीर्षकवाले परिशिष्टमें उपादानउपादेयभाव और कार्यकारणभावका विशद विश्लेषण किया है। सम्पूर्ण पुस्तक लेखकके गहन अध्ययन और ज्ञानगरिमाको सुचित करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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