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________________ जैनदर्शनमें कार्य-कारणभाव और कारक व्यवस्था : एक समीक्षा • डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर कार्यकारणभाव और उसके आधारभूत कारकोंकी शास्त्रीय विवक्षाको न समझनेके कारण कुछ लोगोंने प्रचारित करना आरम्भ कर दिया कि कार्य स्वयं उपादानसे होता है, उसके लिये अन्य कारण या निमित्तकी आवश्यकता नहीं है। इस भ्रान्तिको दूर करनेके लिये जैनदर्शनके मर्मज्ञ, व्याकरणाचार्य पं. बंशीधरजीबीनाने 'जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' नामक पुस्तककी संरचना की है। कार्यकारणभाव कारकव्यवस्थासे सम्बद्ध है, अतः सबसे पहले उन्होंने कारकका लक्षण लिखा है(साक्षात्) क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्' अथवा 'करोति क्रियां निवर्तयति' इति कारकम् । जिसमें साक्षात् क्रियाजनकत्व हो वह कारक है। साक्षात् पदका विनिवेश होनेसे 'देवदत्तस्य पुत्रः ओदनं भुंक्ते' यहाँ देवदत्तमें कर्तृत्वका परिहार हो जाता है। देवदत्त भले ही दिवंगत हो गया हो तो भी पुत्रमें भोजाकियाका कर्तृत्व सुरक्षित है । यही कारण है कि संस्कृतमें सम्बन्धको कारक नहीं माना है। ___ कारकके ६ मेद हैं-१ कर्ता, २ कर्म, ३ करण, ४ सम्प्रदान, ५ अपादान और ६ अधिकरण । कार्य करने में जो स्वतन्त्र हो उसे कर्ता कहते हैं । कर्ता अपनी कियाके द्वारा जिसे प्राप्त करना चाहता है, जिसे बनाना चाहता है अथवा जिसे विकृत-परिवर्तित करना चाहता है उसे कर्म कहते हैं। जो कर्ताके अधीन हो अथवा जिसकी अनिवार्य सहायतासे कर्ता कार्य करता है उसे करण कहते हैं। कर्ता अपने द्वारा निष्पाद्य पदार्थको जिसके लिये देना चाहता है उसे सम्प्रदान कहते हैं । जिससे किसी वस्तुको पृथक् किया जाता है उसे अपादान कहते हैं और कर्ता जहाँ स्थित होकर वांछित कार्यको निष्पन्न करता है उसे अधिकरण कहते हैं। कार्यकी सिद्धि कारकोंकी पारस्परिक सापेक्षतासे ही होती है । कर्ता दो प्रकारका है-एक स्वयं कर्ता और दूसरा प्रेरककर्ता । प्राप्य, विकार्य और विवय॑के भेदसे कर्म भी तीन प्रकारका है। जिस प्रकार बाह्य षट्कारककी व्यवस्था है उसी प्रकार अभ्यन्तर षटकारककी भी व्यवस्था है । बाह्य षट्कारककी व्यवस्था विभिन्न वस्तुओं पर निर्भर रहती है जबकि अभ्यन्तर षट्कारककी व्यवस्था एक ही वस्तु पर निर्भर होती है। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारकी षट्कारकव्यवस्था व्यवहारनयका विषय है। निश्चयनयको विवेचनामें आत्मद्रव्यको षटकारकचक्रकी प्रक्रियासे उत्तीर्ण-रहित माना गया है क्योंकि निश्चयनय एक अखण्ड वस्तुका प्रतिपादन करता है। इस सब व्यवस्थाका प्रतिपादन लेखकने इस ग्रन्थमें अनेक प्रश्नोत्तरोंके माध्यमसे प्रस्तुत किया है । जिनागममें कारणके दो भेद कहे गये हैं-एक उपादान और दूसरा निमित्त । जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे कार्मणवर्णणारूप पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाता है, मिट्टी घटरूप हो जाती है और आटा रोटी बन जाता है। निमित्तकारण वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता, परन्त उपादानके कार्यरूप परिणत होने में सहायक होता है। जैसे कार्मण-वर्गणाके कार्यरूप परिणत होने में जीवका रागादिभाव और योगव्यापार सहायक होता है। निमित्तकारण भी अन्तरङ्ग और बहिरङ्गके भेदसे दो प्रकारका है। जैसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें त्व आदि सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमका होना अन्तरङ्ग निमित्त है और जिनबिम्बदर्शन अथवा देशना आदि बहिरङ्ग निमित्त हैं । अन्तरङ्ग निमित्तके होनेपर कार्य नियमसे होता है और बहिरङ्ग निमित्तके होनेपर कार्यकी सिद्धि हो भी और न भी हो। जैसे प्रत्याख्यानावरणकर्मका क्षयोपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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