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________________ जैनतत्वमीमांसाकी मीमांसा : शास्त्रीयमान्यताके परिप्रेक्ष्यमें •पण्डित बलभद्र जैन, निदेशक-कुन्द-कुन्द भारती, नई दिल्ली [१] प्रस्तुत पुस्तक "जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" जैनसमाजके बहश्रत और तत्त्वचिन्तक विद्वान् पण्डित वंशीधरजी व्याकरणाचार्य द्वारा लिखी गई है । यह पुस्तक समाजके विश्रुत विद्वान् पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखिति 'जैनतत्त्व मीमांसा' नामक पुस्तकके उत्तरस्वरूप लिखी गई है। इस उत्तर-प्रत्युत्तरका सन्दर्भ समझनेके लिये इसकी पृष्ठभूमिमें जाना होगा। इसमें सन्देह नहीं है कि दोनों ही विद्वानोंकी गणना जैनसमाजके उच्चकोटिके विद्वानोंमें की जाती है। दोनोंने जो कुछ लिखा, वह तर्कपूर्ण और सप्रमाण लिखा। उनको भाषा संयत एवं सभ्यजनोचित है । उनकी शैलीमें प्रौढ़ता है। दोनों विद्वानोंकी पुस्तकें पढ़नेसे जैनदर्शनके अनेक दुरूह विषयोंको समझनेका अवसर सुलभ होता है । विषय जितने गहन हैं, उनको अपने पक्षकी दृष्टिसे सिद्ध करनेवाले तर्क भी उतने ही गहन है । यदि उन्हें समझना है, तो उसके लिये गहन, मनन और चिन्तनकी आवश्यकता होगी । तभी यह निष्कर्ष निकल सकेगा कि किसके तर्कमें अधिक पैनापन है; किसको प्रस्थापनाएं नवीन हैं और कौन सिद्धान्त एवं परम्पराके अधिक निकट है। निःसन्देह दोनों विद्वान दो विचारधाराओंका प्रतिनिधित्व करते है। पं० फूलचन्द्रजीको विचारधारा कानजी स्वामीकी सोचके अधिक निकट है । पं. बंशीधरजीकी कोई स्वतन्त्र विचारधारा नहीं है। उनकी विचारधारा वही है, जो समाजमें परम्परागत शास्त्रीय विचारधारा है। श्री कानजी स्वामी स्थानकवासी समाजके सौराष्ट्रके आचार्य थे। वे अपनी उग्र विचारधाराके लिये उस समाजमें भी बहुचचित थे। वहाँ कुछ परिस्थिति ऐसी बनी कि उन्हें दिगम्बर समाजमें आना पड़ा। वे दिगम्बर समाजमें किसी दिगम्बर जैन मनि या आचार्यसे विधिवत् दीक्षा लेकर नहीं आये। वे सामान्य ढंगसे नहीं आये । वे एक तूफानकी तरह आये । तूफान जब आता है, तो सूखे पत्तोंकी तो गिनती क्या है, बहुत कुछ उलट पुलट हो जाता है। कानजी स्वामीके प्रबल तूफानमें छोटे-मोटे जैन विद्वानोंकी तो बात ही क्या है जिन्हें जैनतत्त्वोंका गहन अध्ययन नहीं है, इसमें बड़े-बड़े सिद्धान्ताचार्य और पी० एच० डी० प्रोफेसर भी बह गये, जो यह कहने में भी नहीं चूके कि कानजी स्वामीके तो हमारे ऊपर अनन्त उपकार हैं । अनन्त उपकार तो केवल तीर्थंकर भगवानके होते हैं । सम्भवतः उनके व्यक्तिगत उपकारोंको वे अनन्त उपकार मानते हों। इस तफानमें दिगम्बर समाजके अनेक सेठ और सम्पन्न लोग भी बह गये, क्योंकि इस नये जमावडेमें सम्यग्दर्शनके लिये त्याग और चारित्रकी नहीं, मुमुक्षु-मण्डलके स्वाध्यायमें बैठने या उससे सहानुभूति रखनेकी आवश्यकता थी। सेठ सक्रिय सहानुभूति दिखा हो सकते हैं। इससे इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें लाभ दिखाई देता है। यह तो स्वीकार करना होगा कि कानजी स्वामीके इस तूफानी मिशनके कारण समाजके सर्वसाधारण वर्गमें समयसार आदि आध्यात्मिक शास्त्रोंके स्वाध्यायको रुचि बढ़ी है। किन्तु यह भी स्वीकार करना होगा कि इस स्वाध्यायका एकमात्र श्रेय केवल कानजी स्वामीको ही नहीं दिया जा सकता। स्वामीजीके अवतरणसे पूर्व प्रशममति क्षल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के प्रभावक व्यक्तित्त्वके कारण त्यागीवर्गका झकाव समयसार आदि ग्रन्थोंके स्वाध्याय एवं पठन-पाठनकी ओर हो रहा था। ज्य वर्णीजी जहाँ प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं वे चारित्रधारी भी थे। चारित्रहीन ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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