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________________ ६० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इतनी उपाधियाँ मिलना आसान बात नहीं थी। इसके पीछे उनका गहन अध्ययन, परिश्रमशीलता और लगन थी। किशोरावस्थाके ये गण उनके लिए अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हुए। वह वराबर आगे बढ़ते गये और एक दिन उन्नतिके चरम शिखर पर पहुँच गये । आज उनको गणना जैन समाजके उन विद्वानोंमें होती है, जिनके नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ___पंडितजी चाहते तो अपनेको जैन दर्शन और जैन साहित्य तक ही सीमित रख सकते थे, किन्तु समाजको भी उन जैसे निःस्पृही और निःस्वार्थ सेवककी आवश्यकता थी। उन्होंने जैन और जैनेतर समाजोंकी चेतनाको जाग्रत करनेके लिए सतत प्रयत्न किये । वह पुरातन पीढ़ीके थे, किन्तु उन्होंने यह नहीं माना कि जो कुछ अच्छा है, वह केवल प्राचीनताको देन है । उन्होंने वर्तमान उपलब्धियोंको भी देखा और उनमें जो ग्राह्य था, उसे ग्रहण किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राचीन परम्पराओं, आचार-विचारों और संस्कृतिके प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी उन्होंने आधुनिक विचारोंके सम्बन्धमें उदार दृष्टिकोण रखा और यथासम्भव दोनों विचार-धाराओंके बीच समन्वय स्थापित किया। पंडितजीका जीवन बहुआयामी है । वह विद्वान हैं। समाजसेवी हैं, लेकिन साथ ही राष्ट्र-सेवी भी हैं । जिस समय देशमें नमकसत्याग्रहके फलस्वरूप एक नई चेतना जाग्रत हई और सारा देश पूर्ण स्वतन्त्रताकी शपथ लेकर मैदान में आ खड़ा हुआ, पंडितजी भी पीछे नहीं रहे । देश-सेवाके कार्यों में सक्रिय योगदान दिया और जब सन १९४२ में ९ अगस्तको 'भारत छोड़ो' आन्दोलनका सूत्रपात्र हआ तो पंडितजी राष्ट्र-सेवकोंकी प्रथम पंक्तिमें आ खड़े हुए, जेल गये। सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें उन्होंने नौ-दस माह कितने कष्ट में बिताये, उसकी कहानी आज भी दिल दहला देती है। पंडितजी नगर कांग्रेस-कमेटीके अध्यक्ष और मध्यप्रांतीय कांग्रेस कमेटीके सदस्य भी रहे। जो मुक्त हस्तसे देता है, उसका भण्डार कभी रिक्त नहीं होता, उल्टे समृद्ध होता है। कहते हैं, सर्वोत्तम दान विद्यादान होता है । पंडितजीने अनेक पुस्तक तो लिखी ही. विभिन्न विषयोंके दर्जनों लेख भी लिखे । गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला और भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषदके वर्षों तक मंत्री रहे । सिवनी तथा श्रावस्तीके विद्वत्परिषद-अधिवेशन उन्हींको अध्यक्षतामें सम्पन्न हए । इन अधिवेशनोंमें उन्होंने जो भाषण दिये, उन्हें सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध रह गये । उन्होंने कई पत्रोंका सम्पादन भी किया। छः दशकसे वह लगातार समाज, साहित्य, धर्म और संस्कृतिकी सेवामें संलग्न है। अध्यापनमें उन्होंने अधिक समय नहीं लगाया, अधिकांश समयका उपयोग अध्ययन और लेखनमें किया। वह मौलिक चिन्तक है और लेखनमें भी उनको विशेष गति और मति है। यह जैनदर्शन और जैन साहित्यके अधिकारी विद्वान् है । मैंने एक स्थान पर लिखा है कि साधक कभी थकता नहीं, कभी रुकता नही । पंडितजी एक महान् साधक हैं। चौरासी वर्षकी वयमें आज भी वह सक्रिय हैं । उनका चिन्तन और लेखन अबाध गतिसे चलता रहता है। सेवाके प्रति समर्पित व्यक्तित्वकी विशेषता होती है कि वह अपने जीवनकी प्रत्येक श्वास और प्रत्येक घड़ीका सदुपयोग करता है। एक क्षण भी प्रमादमें नहीं खोता। पंडितजीका सम्पूर्ण जीवन सेवाके लिए समर्पित रहा है। इसीसे समयका उनके लिए बड़ा सूल्य है। पंडितजो अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे है, अनेक सम्मान उन्हें मिलते रहें है, लेकिन यह निविवाद सत्य है कि उनसे पंडितजा नहों, वे स्वयं गोरवान्वित हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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