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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५९ की है । और अपने अबाध ज्ञान और मननका जीव-उद्धार तथा परम्परया समाज-देश उद्धारके लिए ही उपयोग किया है। इसीलिए संकुचित मान्यताओंके अर्थप्रधान समाजमें ये प्रकाशस्तम्भका कार्य करते रहे हैं। पंचकल्याणकगजरथ आदि कालातीत प्रभावनाओंका ही प्रतिरोध आपके द्वारा नही हुआ है; अपितु लक्ष्मीके सामने शारदाको झुकानेवाले अपने प्रौढ़ सुधार-साथियोंका भी सुधार करनेमें वे अग्रणी रहे हैं। और द्रव्यानुयोगलोपके कारण अध्यात्महीन श्रमण-सम्प्रदायी एकाध साधु द्वारा केवल अध्यात्मके एकाध ग्रन्थके आधार पर ही अपनाये गये निश्चयकान्तका, दृव्यानुयोगके धनी श्रमणधर्मी प्रौढ़ विद्वानों द्वारा समर्थन किये जानेपर व्याकरणाचार्यजी अपने एकाकी प्रयास द्वारा सिद्धान्ताचार्यकी भूमिका निभा सके हैं। इन्होंने स्पष्ट कर दिया कि धर्मशास्त्री, कभी भी अर्थशास्त्री नहीं होता। और न ही वह व्यवहारैकान्ती होता है, चाहे व्यवहारैकान्ती स्वपक्षमें लानेके लिए ख्याति-लाभका भण्डार उसके सामने उडेल देवें । उसकी तो वादार्थी स्वामी समन्तभद्रके चरणनिन्होंपर चलकर "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' मात्र ही एक गति है, क्योंकि ऐसा करनेपर ही उसका इष्ट, प्रसिद्ध दृष्टका साधक होता है । अपनी इस प्रखर दृष्टिके कारण स्वजन एवं परिजनोंके विरोध करनेपर भी अपने राष्ट्रीय स्वातन्त्र्यसंग्राममें भी भाग लिया था। और १८५८ में धोखेसे आक्रान्त सोरंई (अब जिला ललितपुर) को भी अकेले ही सत्याग्रही बनाया था। अंचल, गुरुकूल और अन्य प्रकारोंसे वे लेखकके अग्रज हैं। अतः ख्याति-लाभ-मानसे परे इन एकमात्र श्रमण-पण्डितजीको प्रणाम ही करना समुचित है। साधना-पथके निष्ठावान पथिक श्री यशपाल जैन, दिल्ली मझे यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ कि पंडित बंशीधर व्याकरणाचार्यका दीर्घकालीन सेवाओंके उपलक्ष्यमें सार्वजनिक सम्मान किया जा रहा है और उस शुभ अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दनग्रन्थ भेंट किया जा रहा है। मैं उनका पूरे हृदयसे अभिनंदन करता हूँ और उनके उत्तम स्वास्थ्य तथा दीर्घायुकी प्रभुसे कामना करता हूँ। पंडितजी जैन समाजके उन इने-गिने विद्वानोंमेंसे हैं, जिन्होंने अपनी वाणी और लेखनीसे जैन समाजको असामान्य प्रेरणा दी है और जैन वाङ्मयको समृद्ध किया है। उनकी कई पुस्तकें जैन तत्त्व-ज्ञान, जैन तत्त्व-मीमांसा आदिके सम्बन्धमें बड़ी मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत करती हैं। उनकी सब-से-बड़ी विशेषता प्रामाणिकता, विचारोंकी स्पष्टता और विवेचनकी मौलिकता है। मुझे पंडितजीके निकट सम्पर्क में आनेका अवसर नहीं मिला, किन्तु जब भी उनसे साक्षात्कारका सौभाग्य प्राप्त हआ है, उनकी सरलता और सादगीने मुझे बहुत प्रभावित किया है। विद्वत्ता प्रायः व्यक्तिको जटिल और अभिमानी बना देती है, परन्तु पंडितजीके जीवनको जटिलता और अभिमान स्पर्श नहीं नहीं कर पाये । उनकी विद्वत्ता किसी को भी आतंकित नहीं करती, उल्टे स्नेह और आदर उत्पन्न करती है। उत्तरप्रदेशके बुन्देली-भाषी सोंरई ग्राममें जन्मे पंडितजीको प्रारंभिक शिक्षा जन्म-स्थान पर हुई। अनंतर वह ११ वर्षकी अल्पायमें वाराणसी चले गये, जहाँ स्याद्वाद महाविद्यालयमें उनका नियमित शिक्षण हआ। और वहींसे वह व्याकरणाचार्य, साहित्य-शास्त्री, जैन-दर्शन-शास्त्री और न्यातीर्थकी उपाधिोंसे अलंकृत हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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