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________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३७ राहो (छतरपुर) तथा अहार (टीकमगढ़) से ई० ११४८, ११५५ और ११५८ के तथा महोबासे ई० ११६३ के प्राप्त अभिलेखोंमें वहाँ मदनवर्मदेवका राज्य बतलाया गया है। गोल्लागढ़ (गोलाकोट) इसकी सम्भवतः राजधानी थी और उसके चारों ओर उसका शासन था । शिवपुरी, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, झांसी और भिण्ड-भदावरका क्षेत्र उसके अन्तर्गत था। अहारका मदनसागर तालाब और सोरईके पास स्थित मदनपुर इसीके नामपर रहे मालूम होते हैं। हम पहले कह आये हैं कि गोल्लागढ़के पास स्थित गोलपहाड़ीपर गोलपरकोटेके भीतर बने जैन मन्दिरमें ११९ मूर्तियां विराजमान है। इसके द्वारा शासित यह उपयुक्त क्षेत्र गोलपहाडीके कारण ही 'गोला' या 'गोल्लदेश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ हो, तो आश्चर्य नहीं है। इसका शासन-काल ई०११२९ से ११६३ माना जाता है। इसने अपने देशका ३४ वर्ष शासन किया है । इसके शासन-कालमें विभिन्न स्थानोंपर अनेक जैन प्रतिमा-प्रतिष्ठाएँ हुई हैं । यह अपने पूर्वज धंग, विद्याधरदेव आदिसे अधिक जैनधर्मप्रेमी था। चन्द्रगिरि (श्रवणबेलगोला) के अभिलेखोंमें आचार्य वीरनन्दी 'विबुधेन्द्र' की परम्परामें दीक्षित जिन प्रसिद्ध आचार्य गोल्लाचार्यका उल्लेख किया गया है और जिन्हें गोल्लदेशाधिप तथा चन्देलराजवंशचडामणि दीक्षाके पूर्व बताया गया है, वह राजा और कोई नहीं, मदनवर्मदेव (ई० ११२९-११६३) चन्देल ही था और उसका शासित क्षेत्र गोल्लदेश था। यहाँ विचारणीय है कि उसकी विरक्ति और जैनधर्ममें दीक्षित होनेका कारण क्या है ? इस विषयमें दो कारण प्रतीत होते हैं । एक तो यह कि गोल्लागढ़ में कोई प्रभावशाली जैन धर्मोपदेशक भट्टारक या विशिष्ट आचार-विचार सम्पन्न विद्वान् आया हो, जिनके प्रभावपूर्ण उपदेशसे जहाँ नगरका अधिकांश वैश्य समाज प्रभावित हुआ हो और उसने अपने आचार-विचारमें परिवर्तन किया हो वहाँ राजा मदनवर्मा (ई० ११६३) भी उनके उपदेशसे इतना प्रभावित हआ हो कि उसने राज्यको तणवत त्यागकर चन्द्रगिरि (श्रवणबेलगोला. कर्नाटक) में जाकर दिगम्बर जैन श्रमणकी दीक्षा ले ली हो और गोल्लदेशके राजा होनेसे वे 'गोल्लाचार्य' नामसे प्रथित हए हों। वे जैनधर्मके अतिशय भक्त थे । दुसरा कारण यह ज्ञात होता है कि इसके राज्यपर किसी दूसरे शत्रु राजाके द्वारा आक्रमण किया गया हो और जिसका मुकाबला कर सकना सम्भव न देखकर मदनवर्मा राज्यको त्यागकर दूरवर्ती एवं पावन क्षेत्र श्रवणबेलगोला पहुँचे हों तथा वहाँ चन्द्रगिरिपर आ० वीरनन्दी 'विबुधेन्द्र' को परम्परामें दीक्षित हो गये हों। दीक्षा लेनेके पूर्व यतः वे गोल्लदेशनरेश थे, अतः वे 'गोल्लाचार्य' नामसे प्रख्यात हुए। यही सबब है कि अभिलेखोंमें मदनवर्माके वैराग्यका सष्ट कारण न बताकर 'केन च हेतुना', 'किमपि कारणेन' (किर कारणसे, कुछ कारणसे) मात्र कहा गया है। वह कौन शत्रु राजा था, जिसका आक्रमण मदनवर्माके लिए अपरिहार्य रहा, यह इतिहासके आलोक में अन्वेषणीय है। ई० ११६३ के बाद मदनवर्माके विषयमें इतिहास मौन है । इसीलिए उसके सम्बन्धमें उक्त दो कारणोंको सम्भावना की गई है। नगरके धार्मिक वैश्य समाज भी धर्मक्षतिके भयसे सुरक्षित दूसरे स्थानोंपर चले गये हों। सपादलक्षदेशपर म्लेच्छ (साहिबुद्दीन तुरुष्कराज) द्वारा आक्रमण किये जानेपर जैसे पण्डितप्रवर आशाधर (१३०० संवत) बहुत परिवाराके साथ पूर्व स्थान माण्डलगढ़को छोड़कर चरित्रनाशके भयसे धारापुरीमें जा बसे थे। “गोला" शब्दके प्रसंगसे इतना प्रासंगिक कहनेके उपरान्त उसके उत्तरपद "पूर्व" पर भी विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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