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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३५ पं० नाथूराम प्रेमी--आपने एक प्रतिमालेखमें आया 'गोला' नामक स्थान सूरतके निकट स्थित महुआ और रानीतालको माना है और वहाँसे इस अन्वयका उद्भव बतलाया है ।२२ पं० मोहनलाल शास्त्री--आपने ओरछा और छतरपुर दोनों या एकको गोलापूर्वान्वयका उद्भवस्थान बताया है । आपने लिखा है कि 'ओरछा स्टेट (मध्यप्रदेश) में अहार और पपौरा तथा छतरपुर स्टेट (म० प्र०) में छतरपुर और महोबा ऐसे स्थान हैं, जहाँसे गोलापूर्वान्वयके प्रचुर मूर्तिलेख प्राप्त हुए हैं।' ग्वालियर स्टेट (म० प्र०) में इस अन्वयके अभिलेख प्राप्त न होनेसे उन्हें ग्वालियरको उसका उद्भव स्थान मानना इष्ट नहीं है । उनकी दृष्टिमें यह सब क्षेत्र 'गोला' कहा जा सकता है ।२3 __ श्री विद्याधर जोहरापुरकर--आपने अपने 'भट्टारक सम्प्रदाय' ग्रन्थमें 'गोलाराडान्वय' का उल्लेख किया है । पर 'गोलाराड्' कहाँ रहा, इस सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा ।२४ डॉ० दरबारीलाल कोठिया-आपने आहार क्षेत्रके पास स्थित 'गोलपुर' नामक एक ग्रामको 'गोला' से समीकृत किया है, क्योंकि आहार क्षेत्रमें इस अन्वयकी प्रचुर मूर्तियां उपलब्ध हैं ।२५ डॉ० कस्तुरचन्द्र कासठीवाल--आपने अपने ‘खण्डेलवाल जैन समाजका वृहद् इतिहास' (पृ० ५८) में लिखा है कि इस जातिका निवास गोल्लागढ़ (गोलाकोट) की पूर्व दिशामें रहा है। उसकी पूर्व दिशामें रहने वाले गोलापूर्व कहलाये। समीक्षा __डॉ. जगदीशचन्द्र जैनका 'गोला' नामक स्थानको गुन्टूर जिलेके 'गोलि' स्थानसे समीकृत करना अभिलेख आदि साक्ष्योंके अभावमें तर्कसंगत नहीं है और न गोदावरीके आसपासका प्रदेश भी उनके अभावमें 'गोला' माना जा सकता है। तमिल, केरल आदिके लोग भी काले होते हैं। अतः उनका यह आधार भी उसमें सहायक नहीं है। श्री प्रभुलाल पोहरीका संवत् १८२५ में लिखे गये नबलशाहके वर्द्धमान-पुराणमें आये 'गोयलगढ़' को ग्वालियरके अभिलेखोंमें आये 'गोइलगढ़'से समीकृत करना और उसे गोलापूर्वान्वयका उद्भव-स्थल बताना युक्त नहीं है । इस सम्बन्धमें निम्न बाधक हैं (१) तीर्थंकर ऋषभदेवका गोयलगढ़ आना और वहाँके वैश्योंको उपदेश देना तथा उसे उनके द्वारा ग्रहण करना ये ऐसी बातें हैं, जिनका आदिपुराण (९वीं शती) में२६ कोई उल्लेख न होनेसे विश्वसनीय नहीं कही जा सकती हैं। (२) नबलशाह स्वयं गोलापूर्व जैन थे । ऐसी कथा लिखनेमें अतिशयोक्ति भी कर सकते हैं । (३) ग्वालियरमें गोलापूर्वान्वयके कोई प्राचीन अभिलेख प्राप्त नहीं हुए । श्री प्रभुलालका यह कहना भी तर्कयक्त नहीं है कि तैमर और औरंगजेबने गोलापर्व समाजके मन्दिरों और मतियोंकी 'इतिश्री कर दी है, क्योंकि कोई कितना ही विनाश क्यों न करे, उनके अवशेष तो मिलते, जबकि एक भी अवशेष प्राप्त नहीं होता। गोलापूर्वान्वयके सम्बन्धमें प्रचलित निम्न जनश्रुति भी इस विषयमें वलिष्ठ नहीं है गोलापूरब वानिया गोयलगढ़के जान । पाणाशाह ता वंशमें सर्वप्रतापी मान ।।२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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