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________________ ८ - पुत्र है, जिनकी लेखनी एवं वाणी दोनों में जिनवाणीके अमर सन्देश भरे पड़े हैं । जो आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में : "अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् " के रूपमें लिखे गये हैं । तथा जिनका जितना अधिक अध्ययन होगा उतना ही वे सरस बनकर समाजके खून में समा जायेंगे । इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर अभिनन्दन ग्रन्थको ६ खण्डों में विभाजित किया है । उन खण्डों में से केवल दो खण्डों में पण्डितजीके जीवन एवं व्यक्तित्वपर देश एवं समाजके माने हुये सेवाभावी प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों एवं विद्वानोंके संस्मरण, लेख एवं शुभकामनाएँ दी गई हैं। सीमित पृष्ठोंके कारण बहुतसे महानुभाव ऐसे रह गये जो पण्डितजीके गुणों, उनकी लेखनी एवं वाणीसे परिचित हैं लेकिन हम उनसे सन्देश, शुभ कामना अथवा संस्मरण नहीं मांग सके । लेकिन जीवन-परिचय, भेंटवार्ता एवं उनके व्यक्तिपरक लेखों से हम उनके विशाल व्यक्तित्वका अनुमान लगा सकते हैं । उनकी शैशवास्था, बाल्यावस्था अभावों एवं निर्धनतासे जकड़ी हुई थी । ज्ञानार्जन जहाँ दिवास्वप्न के समान था । माता-पिताकी छत्रछाया बचपनमें नहीं रही थी । ऐसी स्थिति में पण्डितजीका व्याकरणाचार्य तक शिक्षा प्राप्त करना कितना कष्टप्रद एवं दुरूह रहा होगा यह तो मुक्तभोगी ही जान सकता है । दूसरे खण्ड में पण्डितजीकी कृतियोंकी विस्तृत समीक्षा दी गयी है । सभी समीक्षाएँ अधिकारी विद्वानों द्वारा की गयी हैं और पण्डितजीके मौलिक लेखन पर प्रकाश डालनेवाली हैं । समीक्षा करनेवाले विद्वानोंके नाम निम्न प्रकार है । जैन तत्त्व मीमांसाकी मीमांसा भाग्य एवं पुरुषार्थ : एक नया अनुचिन्तन जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जैनदर्शन में कार्यकारण भाव एवं कारक व्यवस्था जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार पर्याय क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी पं० बलभद्र न्याय तीर्थं, देहली डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी श्री नीरज जैन, सतना ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, सागर स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति जी . डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य [ डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी (पं० विजयकुमार शास्त्री, श्रीमहावीरजी यद्यपि पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने पहले ही अपनो रचनाओंमें उन ग्रन्थोंकी समीक्षा लिखी थी जो आगमसम्मत विचारोंसे कुछ हटकर लिखे गये थे तथा जिनके कारण समाजके वातावरण में विरोधके स्वर सुनाई देने लगे थे । सर्वप्रथम पण्डितजीने ही समीक्षात्मक पुस्तकें लिखनेका श्रेय प्राप्त किया। ऐसी पुस्तकोंकी समीक्षा करनी यद्यपि दुरूह कार्य है फिर भी समीक्षकोंने जिस रूपमें इन पुस्तकोंकी समीक्षाएँ लिखीं उनसे पुस्तकोंका मूल्यांकन करनेमें बड़ा सहयोग मिलेगा और इन पुस्तकोंका वास्तविक उद्देश्य आम जनताके सामने आ सकेगा । Jain Education International अभिनन्दन ग्रन्थके शेष चार खण्डों में पण्डितजीके चयनित निबन्धोंको प्रस्तुत किया गया है। ये चारों खण्ड ही इस ग्रन्थकी आत्मा हैं जो धर्म और सिद्धान्त, दर्शन और न्याय, साहित्य और इतिहास, संस्कृति और समाज जैसे विभिन्न शीर्षकों में विभाजित हैं । इन खण्डोंमें दिये गये निबन्धोंसे पण्डितजीके बहुमुखी कर्तृत्व क्षमताका परिचय मिलता है । वे केवल समीक्षात्मक पुस्तकें लिखनेवाले विद्वान् ही नहीं, अपितु जैनधर्मके विविध पक्षों को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा उजागर करनेवाले हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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