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________________ सम्पादकीय " विद्वान् सर्वत्र पूज्यते " इस उक्ति के अनुसार विद्वानोंका समादर सदासे ही होता आया है । विद्वान् किसी एक देश, किसी एक धर्म, किसी एक जाति अथवा किसी एक सम्प्रदायका नहीं होता, क्योंकि उसके प्रवचनों, लेखों, पुस्तकों एवं वाणीसे सभी लाभान्वित होते हैं, इसलिये वह जहाँ भी चला जाता है वहीं उसका सम्मान होने लगता है । हमारे आचार्य, साधु एवं पंडित अपनी जातिसे नहीं, बल्कि अपने गुणोंसे समादृत होते हैं । उनकी न कोई जाति पूछता है और न प्रदेशका नाम जानता है । उनकी ज्ञान-साधना ही उनका परिचय है, उनकी लेखनी ही उनके गुणोंको उजागर करने वाली है और उनकी वाणी ही उनके जीवनपर प्रकाश डालने वाली होती है । जैसे होरेको कितना ही छुपाया जावे वह कभी भी नहीं छिपता है उसी प्रकार साधु एवं विद्वान् भी यदि अपने आपको छिपाना चाहे तो गुणीजन उनको स्वयं खोज लेते हैं और फिर उनकी प्रशस्तियाँ पढ़ने लगते हैं । ऐसे ही एक विद्वान् हैं पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य । वे पण्डित हैं, ज्ञानके अगाध भण्डार हैं, सशक्त लेखनीके धनी हैं, वाणीमें अपने विचारोंको सम्यक् रूपसे प्रकट करनेकी क्षमता है, समाज एवं देशके लिये उन्होंने जेल यातनाओंको सहा, समाज में आगम-परम्पराको सशक्त बनानेके लिये सदैव आगे रहे तथा अपने ८४ वसन्तोंमेंसे ६० वसन्त समाजसेवा एवं ज्ञानाराधना में व्यतीत किये। लेकिन फिर भी उनमें कीर्ति, यश एवं अभिनन्दनकी कभी चाह पैदा नहीं हुई और स्वांतः सुखाय अपनी सम्यक् प्रवृत्तियों में लगे रहे । ज्ञानाराधना में लगे हुए विद्वानों, सन्तोंको खोज निकालना भी सरल कार्य नहीं है, क्योंकि वर्तमान युगमें मानव अपनी यशः कामना के पीछे इतना पड़ा रहता है कि जीवनमें एक पुस्तक लिखनेपर वह अपने आपको सबसे बड़ा लेखक समझने लगता है तथा चाहता है कि समाज एवं देश उसकी प्रशंसाओंका पुल बाँध दे तथा उसका एक कार्य ही जीवन भरकी कमाईका साधन बन जावे । लेकिन पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य का स्वभाव एवं प्रवृत्ति ठीक इसके विपरीत है । वे यशसे दूर भागते रहे और अपने अभिनन्दनसे हमेशा कतराते रहे । यदि डॉ० कोठिया साहब उनसे बार-बार अनुरोध नहीं करते, हम उन्हें अपना अभिनन्दनीय मानकर अपने बहुमूल्य कृतित्वसे समाजको लाभान्वित करनेका अनुरोध नहीं करते तो सम्भवतः वे अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनकी स्वीकृति भी नहीं देते। जब हमने उनसे कहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ में आपको प्रशंसा नहीं के बराबर होगी, अपितु आपकी लेखनोके चमत्कारका दिग्दर्शन मात्र रहेगा । आपके द्वारा जो गूढ़ लेख लिखे जा चुके हैं, लेकिन जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें छपनेके पश्चात् भी तिरोहित हो गये हैं । समाज जिनके अस्तित्वसे अनजाना बन गया है और जिनके प्रकाशनकी वर्तमान वातावरण में बहुत आवश्यकता है, आपके समीक्षात्मक ग्रन्थोंका सम्यक् प्रकारसे समाजको परिचय मिल सकेगा । इसलिये एक बार पुनः उनपर सशक्त लेखनीसे समीक्षात्मक विवरण छपनेकी आवश्यकता है । यह सब आपका अभिनन्दन नहीं है लेकिन उन सिद्धान्तों एवं मान्यताओंको प्रकाशमें लाना है जो समयके प्रवाह में छिपसे गये हैं । हमें बड़ी प्रसन्नता है कि पण्डितजी सा० ने हमारे इस अनुरोधको स्वीकार कर लिया और अपना साहित्य एवं पुराने पत्रोंकी फाइलोंको जो उनके पास थीं, उन्हें डॉ० कोठियाजीको हस्तगत कर दीं । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थका शीर्षक सरस्वतीका वरदपुत्र है । पण्डितजी वास्तवमें सरस्वतीके कृपा-पात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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