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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २९ हुए थे तथा एक खंटी भी लगी हुई थी। अन्दर एक बड़ा-सा कमरा तथा इसके बाद एकदम खुला आंगन, जिसे दीवालोंने चारों ओरसे घेर रखा था। एक दहलान भी थी तथा पशुओं आदिके लिए पर्याप्त व्यवस्था।" आदरणीय भैयाजीने यहाँके बारे में बताया कि किस प्रकार पूज्य पिताजी उस घरमें रहा करते थे, उन्होंने बताया कि 'वर्तमानमें बिजलीको समुचित व्यवथा है । परन्तु उस समय बिजली नहीं थी, तब पूज्य पिताजी लालटेन के उजालेमे पढ़ाई करते थे।' बाहर निकलकर मैंने उस मकानके कुछ फोटो उतार लिए । इसके बाद हम लोग अपने स्थानपर आ गये । आद० भैयाजी मुझे और भी बहुत-सी जानकारियाँ देते रहे कि किस प्रकार पूज्य पिताजीने अपने जीवन में अभावों और कष्टोंसे संघर्ष किया। दूसरे दिनका काम इतना जटिल नहीं था, क्योंकि इस दिन हम लोगोंको उन सभी जैन मन्दिरोंके बारेमें जानकारी एकत्रित करनी थी, जो वर्तमानमें व्यवस्थित रूपसे विद्यमान हैं। अब मैं सोरईके उन रास्तोंसे गुजर रहा था, जिनपर पूज्य पिताजीने अपना बचपन व्यतीत किया था। मैंने वहाँ बच्चोंको खेलते पाया तो उनके भी कुछ चित्र मैंने ले लिए। जैसे ही हम लोग मन्दिरजीको जाने वाले रास्तेकी ओर मुडे तो मोड़पर ही मैंने एक 'मार्गसूचक पटल' देखा, जिसे पढ़नेपर ज्ञात हुआ कि आदरणीय पं० दरबारीलालजीने इस रास्तेका फर्शीकरण, आदरणीया भाभीजी श्रीमती चमेलीबाई कोठियाकी पुण्य स्मृतिमें, उनके नामसे कराया है । यह रास्ता ठीक एक मंदिरसे होकर दूसरे मंदिरजी तक समाप्त होता है । मैंने उस पटल एवं उस रास्तेका भी चित्र कैमरेमें उतार लिया । इसके बाद हम लोग बड़े जैन मन्दिरजी गये । वहाँके दर्शनोपरान्त कुछ फोटो अन्दरके लिए। सुरई (गर्भगृह) के भीतर वेदिकापर भगवान पार्श्वनाथको एक भव्य एवं बड़ी मूर्तिके नीचे आसनपर एक श्लोक लिखा था । मैंने मूर्ति एवं श्लोक का एक-एक चित्र कैमरेकी सहायतासे ले लिया। तत्पश्चात उस श्लोकको एक कागजपर लिख लिया। बाहर आकर मैंने देखा कि इस मन्दिरजोके ठीक सामने एक जैन धर्मशालाका भी है। उस धर्मशालाका भी एक चित्र मैंने लिया। उस धर्मशालाका मुख्य द्वार बहुत ही कलात्मक बना हुआ था। उसी धर्मशालाकी छतपरसे बड़े मन्दिरजीका एक सुन्दर चित्र मैंने अपने कैमरेमें उतार लिया । इसके बाद हमलोग छोटे मन्दिरके लिये रवाना हो गये। उस मन्दिरका भी एक खूबसूरत चित्र मैंने खींच लिया। दर्शनोपरान्त अन्दरके भी कुछ चित्र ले लिये । सोरईके ये दोनों मन्दिर शिखरबन्द, कलात्मक एवं व्यवस्थित बने हुए हैं। इसके पश्चात् हमलोग वहाँके चौथे मन्दिर जिसे बाजारका मन्दिर कहा जाता है, गये। यह मन्दिर चैत्यालयनुमा बना हुआ है । सामने ही मामा श्री राजकुमारजीका घर है । उन्हींके मकानकी छतसे मैंने एक फोटो उस मन्दिरका भी ले लिया। तत्पश्चात्, वहींसे गाँवके चारों ओर मैंने नजर घुमाई तो देखा चारों ओर हरियाली-ही-हरियाली है । गाँवका यह दृश्य मनभावन लग रहा था । इसके तुरन्त बाद हो हमलोग सोरईके किलेकी ओर रवाना हुए। किलेका भी एक खूबसूरत चित्र खींचकर, मैं किलेके अन्दर प्रविष्ट हो गया तथा वहाँके कुछ बच्चोंकी सहायतासे मैं किलेकी बुर्जपर जा पहँचा। वहाँसे भी गाँवकी सुन्दरता आसमान छू रही थी। इस समय मैं गाँवके सबसे ऊँचे स्थानपर खड़ा था । एकदम खुली-स्वच्छ हवा, चारों ओर हरियालीकी मुस्कान और भरपूर छोटे-बड़े पेड़-पौधे मनको मोह रहे थे। किलेकी बुर्जसे मैंने देखा कि वहीं दोनों जैन मन्दिर, जिनका उल्लेख मैं पीछे कर चुका हूँ, अब एक बिल्कुल नजदीक नजर आ रहे हैं, साथ ही दूर हनुमान जीका मन्दिर, जैन धर्मशाला तथा उसका पूरा आँगन एवं गाँव का अधिकांश हिस्सा भी । यह दृश्य सचमुच अद्भुत था, जिसे मैं कैमरे में उतारे बिना न रह सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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