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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २३ अच्छा बर्ताव ही उनकी सफलताका मूल कारण है। चाहे कैसा हो ग्राहक आ जावे वे एक भाव बोलते हैं और उसे कभी कम नहीं करते हैं, इसलिये ग्राहकोंका आपको दुकानके प्रति विश्वास जम गया और वे उनके यहां खूब आने लगे। ठाकुर हरनाथसिंहजी __ हमारी बातचीतके बीचमें वहाँ ठाकुर हरनाथसिंहजी आ गये, जो रेल्वे सविसमें हैं और ५३ वर्षकी आयके हैं। मूल निवासी माँझ ग्रामके हैं, जो रायबरेली जिलेमें है। ठाकुर साहब पंडितजीके पक्के ग्राहक कैसे बने, उसे अपनी बीती बात कहकर बतलाने लगे। मैं बीना स्टेशनपर झांसी स्टेशनसे तबादला होकर बीना आया। कुछ दिनों बाद मैं बीना ग्राममें कुछ कपड़े खरीदनेके लिये आया। तीन-चार दुकानोंपर कपड़ा देखा, लेकिन पसन्द नहीं आया तथा भाव भी तेज लगा। अन्तमें मैं घूमता-घूमता पंडितजीकी दुकानपर आया। वहां साडी देखी। पसन्द आ गई । पंडितजीने साडीके १४.२५ बोले। हमने उन्हें १४ रुपये देनेके लिये कहा। लेकिन पण्डितजीने चार आना कम करके देने में मना कर दिया। फिर मैं दुसरे दिन आया । और चार आना कमपर साड़ी देनेके लिये कहा। लेकिन पण्डितजीने फिर मनाकर दिया। फिर हम तीसरे दिन आये, यह सोचकर कि अब तो साड़ीको १४.२५ रुपयेमें ही ले लेंगे। लेकिन दुकानपर जब आये तब मालूम पड़ा कि साड़ी बिक चुकी है। लेकिन दुकानके एक व्यक्ति हरप्रसादजीने कहा कि तुम्हारे बापने भी साडी खरीदी है। आखिर मुझे पण्डितजीकी ईमानदारीपर विश्वास हो गया और उस समयके बाद पंडितजी की दुकानसे ही कपड़ा खरीदने लगा। वैसे पण्डितजोकी ईमानदारी एवं एकभाव सारे नगरमें चर्चाका विषय रहते हैं। ठाकुर साहबने पण्डितजीकी उदारताकी एक और घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि मेरी लड़कीकी शादीमें पण्डितजीने मुझे उधार पैसे देकर उस समय मदद दी, कि जब मैं चारों ओरसे निराश हो चुका था तथा जहाँ कहींसे पैसा आने थे वहाँसे नहीं आये। मैं पण्डितजीके पास प्रातःकाल पहुँचा। स्नान भी नहीं किया था। पण्डितजीको मनकी बात कहने में डर-सा लग रहा था। लेकिन जब अपनी बात कहनी ही पड़ी तो पण्डितजी मेरी पूरी सहायता की और अपने घर खाना भी खिलाया तबसे आजतक हम तो पण्डितजीकी दुकानके पक्के ग्राहक बन गये हैं। इसके पश्चात् मैंने पण्डित भैयालाल शास्त्रीसे पण्डितजीके बारेमें कुछ और बतानेका अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि पण्डितजी जब विद्वत् परिषद्के अध्यक्ष थे, तब मुझे उनके साथ दो-तीन स्थानोंपर जानेका अवसर मिला । उनका मुझे पूर्ण वात्सल्य एवं सहयोग मिला। उन्होंने आगे कहा कि सैद्धान्तिक चर्चा करनेमें पण्डितजीकी बहुत रुचि रहती है। उनका इस संबंधमें अगाध ज्ञान है और वे अपने ज्ञानको चारों ओर बिखेरना चाहते हैं । बीनामें और भी बहुतसे वृद्ध एवं युवा समाजसेवी हैं जो पण्डितजीके पूरे प्रशंसक एवं शिष्य के रूपमें है । लेकिन समय कम होनेसे उनसे भेंट नहीं कर सका। पण्डितजीका विशाल व्यक्तित्व सदा आगे बढ़ता रहे तथा वे समाजकी अपने सैद्धान्तिक ज्ञानसे इसी तरह सेवा करते रहें। इसी भावनाके साथ मैं भी उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं सम्मान व्यक्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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