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________________ विशाल व्यक्तित्वके धनी • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर जैन समाजके वरिष्ठ विद्वान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ख्याति प्राप्त मनीषी हैं। वे प्रथम व्याकरणाचार्य हैं। जैनागमके अच्छे व्याख्याता ही नहीं, किन्तु लेखनीके धनी भी हैं। जैन सिद्धान्त एवं तत्त्वच पर उनके लेख जैन पत्रोंमें प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं। वे बड़े गम्भीर विद्वान् है। जब कभी समाजमें किसी सैद्धान्तिक पक्षको लेकर चर्चा छिड़ जाती है अथवा किसी मान्यताको लेकर विवाद खड़ा हो जाता है तो पंडितजी चुप नहीं रहते और पूर्ण निर्भीकताके साथ अपने विचार समाजके सामने रख देते हैं। उनके विचार आगमके अनुसार होते हैं। उनमें नीर-क्षीरका विवेक देखा जा सकता है। पंडितजीने सन् १९६३ में सर्वप्रथम जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चामें सोनगढ़पक्षके विरुद्ध प्रमुख प्रवक्ताके रूपमें उपस्थित होकर अपनी विद्वत्ता एवं प्रतिभाकी धाक सारे समाजमें बिठा दी थी। पंडितजीने इस तत्त्वचर्चा में उस समय अपना पक्ष प्रस्तुत किया, जब सोनगढ़का सूर्य अपने पूर्ण क्षितिजपर था। इसके पश्चात् उनकी कलम कभी नहीं थकी और निश्चयनय और व्यवहारनय जैसे बहचचित विषयपर एक कृति लिखकर समाजको वस्तुका सही मूल्यांकन करने में महान् योगदान दिया। __ अभी कुछ महीनों पूर्व जब आदरणीय डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने कुण्डलपुरमें विद्वत् परिषद्के नैमित्तिक अधिवेशनपर पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दनग्रंथ भेंट करनेकी चर्चा चलाई, तो मैंने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए डॉ० कोठिया साहबसे इस शुभ कार्यको शीघ्रातिशीघ्न सम्पन्न करने तथा अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करनेका प्रस्ताव भी उनके समक्ष रख दिया। इसके १-२ महीनोंके पश्चात् ही श्री बाबूललाजी फागुल्ल, वाराणसीका अभिनंदनग्रंथकी पूर्ण योजनावाला पत्र मिला। इसके पश्चात् अभिनंदनग्रंथकी पूरी योजनाके संबंधमें डॉ० कोठिया साहबसे श्रीमहावीरजी जाकर भी चर्चा की। अभिनंदनग्रंथके संबंध डॉ० कोठियाजी एवं फागुल्लजीके बराबर पत्र मिलते रहे । जब उन्होंने मुझे पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके व्यक्तित्व एवं जीवनपर एक विस्तृत लेख लिखनेके लिये लिखा, तो मैंने निश्चय किया कि मुझे पंडितजीके व्यक्तित्वकी पूरी जानकारी लेनेके लिये स्वयं बीना जाना चाहिये । आखिर मैं दि० ११ अगस्त, ८९ को प्रातः ९ बजे बीना पहुँचा। स्टेशनसे रिक्शा स्टैण्ड तक आया। जब मैंने रिक्शा वालोंसे पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के घरपर चलनेको कहा, तो रिक्शा वालोंने पंडितजीका नाम सुनते ही मुझे रिक्शामें बैठनेको कहा और २०-२५ मिनटमें ही मुझे उनकी दुकानपर लाकर छोड़ दिया। दुकानपर देखा पंडितजी एवं उनके पास दो युवक (उनके सुपुत्र प्रिय विभवकुमार एवं प्रिय विनीतकुमार) बैठे हुए है । मैंने अपना नाम बताया। पंडितजीको पहिचानने में न मुझे देर लगी और न उनको। उनसे मिलने में बड़ी प्रसन्नता हई। ट्रेनके लेट आने एवं मार्गमें होने वाली असुविधाओंके बारेमें बात होने लगी। थोडीही देरमें डॉ० कोठिया साहब भी आ गये और फिर हम सभी बातोंमें डूब गये । घर आनेपर पंडितजीको समीपसे देखनेका प्रथम अवसर मिला । प्रातः ३ बजेसे रात्रिके १० बजे तक उनकी दिनचर्या देखी । पंडितजी ८४ पार कर चुके हैं। लेकिन उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा है । घरमें उनका अलग ही कमरा है, जिसमें वे लेखनकार्य एवं स्वाध्याय करते हैं। पास ही पुस्तकोंका ढेर लगा है, जिनको वे कन्सल्ट करते रहते हैं । आज भी वे शास्त्रीय चर्चामें उतने ही जागरूक हैं जितने कभी अपनी यवावस्थामें रहे है। कमरे में पुस्तकोंके अतिरिक्त कुछ प्रशस्तिपत्र, जो उन्हें समय-समय पर राष्ट्र और समाज द्वारा मिलते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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