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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १५ थे । विद्वानोंको भी स्वामीजीके विचारोंसे परिचित होनेकी इच्छा थी । इसलिए अधिवेशनमें प्रायः सभी सदस्य विद्वान् पहुँचे थे । वहाँ पं० फूलचन्द्रजी बीमार पड़ गये । अतः उन्हें कुछ समय वहाँ रहना पड़ा । वहाँसे आनेके बाद उन्होंने 'जैन तत्त्वमीमांसा' नामसे एक पुस्तक लिखी । उनकी इच्छानुसार उसका वाचन जैन समाज बीनाके आमन्त्रणपर बीनामें एक विद्वद्गोष्ठी में किया गया । विद्वद्गोष्ठी में समाजके अनेक प्रमुख विद्वान् सम्मिलित हुए थे । पं० फूलचन्द्रजीकी उस पुस्तकपर विद्वानोंमें मतभेद फिर भी बना रहा । उनकी उक्त पुस्तक प्रकाशित होनेपर कई विद्वानोंने उसके विरोध में पुस्तक व लेख लिखे । मैंने भी "जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" नामक पुस्तक लिखी, जिसे पण्डित राजेन्द्र कुमारजी जैन, न्यायतीर्थ, मथुराने 'दिगम्बर जैन संस्कृति सेवक समाज' के द्वारा वरैया ग्रन्थमालाके अन्तर्गत प्रकाशित किया। इसके पश्चात् मैंने दूसरी पुस्तक " जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था" के नामसे लिखी । उसका भी प्रकाशन पण्डित राजेन्द्रकुमारजीने उक्त संस्थाके द्वारा उक्त ग्रन्थमालाके अन्तर्गत किया । इसके पश्चात् "जैनशासन में निश्चय और व्यवहार" पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन " श्रीमती स्व० लक्ष्मीबाई (धर्मपत्नी पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) पारमार्थिक फण्ड" से हुआ । जिन विषयोंको पण्डित फूलचन्द्रजीने अपनी उक्त पुस्तक में उलझानेका प्रयत्न किया है उन्हींका इन पुस्तकों द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है । सोनगढ़ने अपनी विचारधाराको केवल अध्यात्मपरक ऐकान्तिक रूपमें निरूपित किया, जो जैनदर्शनके अनुकूल नहीं । उसीका नया संस्करण टोडरमल स्मारक भवन जयपुर है। दोनोंने जैनदर्शन के तत्त्वोंको गलत रूपमें प्रस्तुत किया है और किया जा रहा है। उन्होंपर जयपुर (खानिया) में विद्वानोंकी परिचर्चाका आयोजन किया गया था । यह संगोष्ठी कई दिन तक चली थी । पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री, पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री और श्री नेमीचन्द्रजी पाटनी एक पक्षके प्रतिनिधि थे तथा न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्रजी, पण्डित मक्खन लालजी शास्त्री, पण्डित जीवन्धरजी न्यायतीर्थ, पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य और मैं ( पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) एक पक्षके प्रतिनिधि थे । ध्यातव्य है कि इस परिचर्चा में और भी बहुत विद्वान् सम्मिलित हुए थे । यद्यपि परिचर्चा वीतरागकथाके रूपमें आयोजित की थी, जिससे जैनागमका रहस्य खोला जा सके । किन्तु वह उससे हटकर विजिगीषुकथा बन गयी । इसलिए मुझे उस तत्त्वचर्चाकी समीक्षा करनेका संकल्प करना पड़ा । और उसके लिए " जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा" के नामसे पुस्तक लिखनेका निर्णय किया, जिसका प्रथम खण्ड " श्रीमती लक्ष्मीबाई (६० प० पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) पारमार्थिक फण्ड" बीनासे प्रकाशित किया गया । इस खण्ड में प्रश्नोत्तर एकसे चार तककी समीक्षा की गयी है । द्वितीय खण्डमें पाँचवें प्रश्नोत्तरकी समीक्षा जो लगभग तैयार है । पर अभी उसका प्रकाशन आर्थिक व्यवस्था न हो सकनेके कारण नहीं हो सका । इन दो खण्डोंके अतिरिक्त दो खण्ड और होंगे। तीसरे खण्डमें छठे प्रश्नोत्तरोंसे लेकर आगे के कतिपय प्रश्नोत्तरोंकी और चौथे खण्ड में शेष प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा की जावेगी । बात यह है कि सोनगढ़ और उसका पूर्णतया अनुयायी टोडरमल स्मारक भवन, जयपुरने दिगम्बर जैनधर्म तत्त्वों का ऐकान्तिक प्रचार एवं प्रसार किया और कर रहे हैं । इसी कारण दिगम्बर जैन समाज में उनकी सर्वाधिक चर्चा है, क्योंकि समाजमें उन्होंने टूट पैदा कर दी है और जिसे रोकना जरूरी है । व्याकरणाचार्यजी, हम आपके अत्यन्त आभारी हैं । आपने हमारे प्रश्नोंके जो समाधान किये हैं उनसे हमें ही नहीं, अपितु सहस्रों पाठकोंको भी लाभ होगा और उन्हें कितनी ही नयी जानकारी मिलेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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