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________________ नवकार हमें जीवन-बोध कराता है, परमात्मा तक पहुँचने की स्थान मिल जाए, तो फिर गमनागमन और आवागमन रुक सकता दूरी कम करके हमारा सम्बन्ध परमात्मा तक जोड़ता है। जगत्भाव है, पर हम हैं कि बिना पते के आगे बढ़ रहे हैं। गन्तव्य की जानकारी से दूर ले जाकर वह हमें आत्मभाव से जोड़ता है। नवकार मन्त्र ही नहीं है, न पता है और न मुकाम। लक्ष्य-बोध द्वारा हमें लक्ष्य तक पहुँचाता है। यह हमें भटकने से अपना पता लगाने के लिए और अपना मुकाम पाने के लिए बचाता है। हमारे चाल-चलन में सुधार लाता है और हमारे जीवन हमें इन परमेष्ठि भगवन्तों के निकट पहुँच कर इनका आलंबन लेना का स्पष्ट लेखा-जोखा हमारे सामने रख देता है। ये पाँचों परम इष्ट होगा, क्योंकि परमेष्ठियों का स्थान निश्चित है। स्थान तो उसका अनिश्चित है, जो इनके निकट नहीं आ पाया। यदि हमें अपने सही परम इष्ट की प्राप्ति और स्थायी स्थान पर पहुँचना है, तो इन परमेष्ठियों को पहचानना इष्ट और परम इष्ट में फर्क है। हमारे अन्य इष्ट अत्यन्त आवश्यक है। जन-संसारी/सम्बन्धी हमें धोखा दे सकते हैं, पर ये परम इष्ट पंच परमेष्ठी भगवंतों के निकट जाना अपने सही और स्थायी स्थान परमेष्ठी कभी धोखा नहीं देते। ये तो हमारे आत्मविश्वास को जाग्रत को पाना है। उनके निकट जाते ही हमारे भटकाव का अन्त हो करके हमारा आत्मबल बढ़ाते हैं। पंचपरमेष्ठी भगवान् हमारे पूरे जीवन जाएगा। जो परमेष्ठियों से दूर रहे, वे संसार में भटक गये और जो को बदल सकते हैं; हमारा कायाकल्प कर सकते हैं; किन्तु यह तभी परमेष्ठियों के निकट आ गये, वे अपना भटकाव भूल गये। हो सकता है, जब नवकार को अपने हृदय में उतार लें। इससे पहले चक्की : एक पाट पाप, एक पाट पुण्य हमें इसके स्वरूप को अच्छी तरह समझ लेना होगा और यह जो संसार एक चक्की है। पण्य और पाप उस चक्की के पाट हैं। कहता है, उसे मानना होगा। इसे पाने के लिए जगत्-भाव का त्याग परमेष्ठियों से जो दर हआ, वह पाप-पुण्य के इन दो पाटों के बीच करना होगा और 'नवकार-भावों को पकड़ना होगा। पिस जाएगा। उसका संसार-भ्रमण जारी रह जाएगा। परमेष्ठियों के नवकार-भाव अपने में आते ही सभी प्रकार के दुर्भाव हमें छोड़ सानिध्य में रहने वाला संसार भ्रमण से बच जाएगा; क्योंकि वह जाएंगे। दुर्भावों की डकैती का डर फिर हमें नहीं होगा। हम में पुण्य और पाप के परे हो जाएगा। नवकार-भाव का अभाव है, इसीलिए दुर्भावना हमारे भीतर समायी परमेष्ठी : बीच की कील हुई है। हमारे जीवन में सद्विचारों की गंगा प्रवाहित होनी चाहिये; आटे की चक्की आपने देखी है। उसमें दो पाट होते हैं। बीच यह तभी संभव होगा, जब हम नवकार को अपने भीतर प्रतिष्ठित कर में एक कील होती है। ऊपर से अनाज डाला जाता है। चक्की घूमती लेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो नवकार के अभाव में हमारे जीवन है और अनाज पिस जाता है। आपको मालूम होगा कि चक्की में में केवल कुविचारों की अस्वच्छ नाली प्रवाहित रहेगी और हमारा डाले जाने के बावजूद भी कुछ दाने सुरक्षित रह जाते हैं। ऐसा क्यों सारा जीवन विकृत हो जाएगा। हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वे दाने कील के बिलकुल निकट इसलिए नवकार के हर अक्षर, हर पद और हर भाव को हम रहे। कील के निकट रहने वाले दाने पिसने से बच गये। तो जो विचारपूर्वक समझें और उसके निकट जाएँ। यदि ऐसा हुआ, तो कील के निकट रहता है, उसकी रक्षा होती है और जो कील से दूर अवश्य ही परम इष्ट की प्राप्ति हुए बिना नहीं रहेगी। हमें अपना रहता है वह पीसा जाता है। कील के पास रहने वाला चक्कर में अधिकृत स्थान अवश्य प्राप्त होगा। नहीं आता। गन्तव्य कहाँ है? मातो, जो परमेष्ठी भगवंतों की शरण में जाता है, वह इस आज हमारा स्थान ही कहाँ है? हम जहाँ हैं, अस्थिर हैं। हम भव-भ्रमण-रूप संसार-चक्की में नहीं पीसा जाता। परमेष्ठी भगवन्त मान लेते हैं कि हमें स्थान मिल गया; पर है हमारा यह प्रम। हमारा इस जगत् के बीच कील-तुल्य है। हम भी यदि उनकी शरण ले लें. स्थान स्थायी नहीं है। इस संसार में किसी का भी स्थान स्थायी नहीं तो फिर संसार की चक्की चाहे जितनी चले, हम उसमें अधिक समय है। सभी अस्थिर है। भले ही घर का मालिक या देश का मालिक तक पीसे नहीं जाएंगे। जल्दी ही हमारे भव-भ्रमण का अन्त हो कोई बन गया हो; पर वह वहाँ स्थायी रूप से दिखायी नहीं देता। जाएगा। किसी का भी स्थान स्थायी नहीं है घर में रहने वाला घर जप : आत्म-परिणमन छोड़ता है भागा-भागा बाजार जाता है। बाजार में गया हुआ भागा-भागा पंचपरमेष्ठी नमस्कार-मन्त्र परम मंगलमय है। हमें नवकार के घर लौटता है। उसका सही स्थान कहाँ है? दूकान है या घर है? भीतर भावात्मक रूप से प्रवेश करना चाहिये। जो भावात्मक रूप से कोई घर से परदेस जाता है तो कोई परदेस से घर आता है। है कहाँ मानवकार नहीं जपता, उसका कर्म भी नहीं खपता। खपेंगे उसी के, ठिकाना? जरा इन सब से पूछो तो सही! जो जपेगा। जो सावधान होकर काम करेगा, उसी का काम होगा। भटकाव कैसा? हमारा जपना कैसा है? केवल ओठ हिलते हैं, पर हृदय इस संसार में जहाँ देखो वहाँ सब प्राणी भटकते नजर आ रहे आन्दोलित नहीं होता। उसमें आत्मा के परिणाम नहीं मिलते। आत्मा हैं; क्योंकि उन्हें अभी तक अपना अधिकृत स्थान नहीं मिला। अपना के परिणाम तो उसमें तब मिलेंगे, जब हम नवकार को सम्यक् रूप श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना लोभ मोह मद वासना, सभी नरक के द्वार । जयन्तसेन तजो सदा, बढ़े नहीं संसार । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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