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________________ महान् साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जाचार्य ६०३: जीवन चरित्र भिक्षु, जस रसायन" में आद्यप्रवर्तक महामना श्री भिक्षु स्वामी का राजस्थानी भाषा में प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत किया है। यह स्वामी जी का साक्षात्कार कराने वाला महान् ग्रन्थ है । यह चार भागों में विभक्त है—प्रथम में स्वामी जी की जीवनी, दूसरे भाग में दान-दया जैसे सैद्धान्तिक प्रश्नों का शास्त्र सम्मत विश्लेषण, तृतीय भाग में स्वामीजी के जीवन काल में दीक्षाओं का विवरण और चतुर्थ में स्वामीजी की अन्तिम आराधना, संघ को शिक्षा, चरम कल्याण, आकस्मिक आभास और समग्र चातुर्मासों का विवरण प्रस्तुत किया है। चारों की ढालें ६३ हैं । समग्र पद्यों की संख्या २१६६ है । कृति बहुत ही रोचक एवं सुन्दर है। “खेतसी चरित्र" इसमें धर्मसंघ के विनयी एवं सरस स्वभावी, उपनाम सतयुगी से बतलाये जाते थे, उनका वर्णन हैं । आपने तपस्या बहुत उग्र की । इसकी १३ ढाले, ६७ दोहे, समग्र पद्यों की संख्या २३७ है। " ऋषिराय सुयश" तेरापंथ धर्मसंघ के तृतीयाचार्य श्रीमद् रायचंदजी स्वामी की जीवन-झांकी प्रस्तुत करता है। इसमें १४ ढालें, ५० दोहे, समग्र पद्य २५७ हैं। "सतीदास चरित्र" "स्वरूप नवरसो" व "स्वरूप चौढालियो" में आपके ज्येष्ठ भ्राता का वर्णन बड़ा रोचक एवं प्रेरणदायी है। इसकी ६ ढालें, ६२ दोहे, १५ सोरठे, समग्र पद्य २६६ हैं । "हरख ऋषि रो चौढालियो," "शिवजी स्वामी रो चौढालियो," आदि मुनिवरों का शिक्षाप्रद जीवन तथा त्यागमय जीवन का लेखा-जोखा है और "सरदार सुयश " ग्रन्थ में महासती सरदारां जी का वर्णन है । यह ग्रन्थ नेरापंथ धर्मसंघ में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । आपका जीवन अनेक विशेषताओं को लिए हुए था— जैसे कुशल व्यवस्थापिका, मधुरभाषिणी, सफल लिपिकर्णी, सत्प्रेरणादात्री, परमविदुषी व निर्भीक हृदया आदिआदि । जयाचार्य युगीन साध्वियों की व्यवस्थाओं को समुचित ढंग से व्यवस्थित रखने में आप प्रमुख थीं। दीक्षा के पूर्व सांसारिक झंझट झमेलों से उपरत होने के लिए आपको अनेकों संघर्षों से गुजरना पड़ा, पर आप कसौटी में स्वर्ण की भाँति खरी उतरीं, यह सब वर्णन "सरदार सुयश" में बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित है । आख्यान - महिपाल चरित्र, धनजी का बखाण, पार्श्वनाथ चरित्र, मंगल कलश, मोहजीत, सीतेन्द्र, शीलमंजरी, महादत्त चरित्र, रतनचूड़, बंधक संन्यासी यशोभद्र, भरत बाहुबली आदि अनेक उपन्यास आपने बहुत रोचक ढंग से लिखे । पाठकगण एक बार अवश्य वाचन करें । तात्विक - इसमें "भ्रम- विध्वंसन" ग्रन्थ तेरापंथ और स्थानकवासी सम्प्रदाय के विचार भेद को स्पष्ट करने के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करता है । यह ३४ अधिकारों में विभक्त है । भगवान् महावीर की वाणी के आधार पर प्रस्तु है। प्राचीन युग चर्चा का युग था । उसमें यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी रहा है साथ-साथ जन-प्रिय भी । देखियेजयपुर, प्राचार्य के दर्शनार्थ एक कच्छ प्रान्त का प्रमुख श्रावक मूलचंद कोलम्बी आया । जब उसने "भ्रम-विध्वंसन" को सुनी तो इस ग्रन्थ से इतना प्रभावित हुआ कि उसकी प्रति को प्रच्छन्न रूप से चुराकर कच्छ ले गया और अतिशीघ्रता से बम्बई में मुद्रित करवा कर जनता के हाथों में पहुँचा दी। किन्तु वह अशुद्ध प्रति ( रफ कापी ) थी, पूर्णरूपेण संशोधित नहीं थी । अस्तु वह ग्रन्थ उपयोगी न होकर अनुपयोगी सिद्ध हो गया, अर्थ का अनर्थ हो गया। जब वह पुस्तक सन्तों के हाथ में आई तो सब देखते रह गये, उसको पढ़ा तो जगह-जगह इतनी अशुद्धियाँ भरी पड़ी थीं कि पुस्तक कोई काम की नहीं रही। जब श्रावकों का ध्यान इस ओर गया तब मूल प्रति (शुद्ध) से संशोधित कर १८६० मैं गंगाशहर के सुप्रतिष्ठित धावक ईशरचंदजी चोपड़ा ने इसको पुनः प्रकाशित करवाकर जनोपयोगी बनाया। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय इस प्रकार है मिध्यात्वी की क्रिया दान, अनुकंपा निरवद्य किया, अल्प पाप बहुत निर्जरा आदि आदि । समग्र ग्रन्थाग्र १००७५ के लगभग है । " सन्देह विपौषधि" नामक ग्रन्थ का रचनाकाल तब का है जब जनता में धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ घर कर गई थीं, उन भ्रान्त धारणाओं को दूर करने हेतु इस ग्रन्थ का निर्माण हुआ । इसके प्रमुख विषय निम्नोक्त है छठा गुणठाणानी ओलखणा, संयोग, व्यवहार, कल्प, धावक अविरति ईर्वापथिकी क्रिया, निरवद्य आमना भावी तीर्थंकर आदि आदि । यह गद्यात्मक ग्रन्थ है । ग्रन्थाग्र लगभग १७०० है । 'जिनाज्ञा मुख मंडन' इसमें आगमोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only 6698 www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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