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________________ ६०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... विधि साधुओं के लिए दर्शायी गई जो कि चर्मचक्षुओं से अकल्पनीय सी प्रतीत होती है किन्तु सर्वज्ञ द्वारा कथित होने की वजह से सन्देह का कोई स्थान नहीं रहता अत: इस दृष्टि से इसमें यथार्थ का उल्लेख किया गया है जैसेनदी पार करना, पानी में डूबती साध्वी को साधुओं द्वारा बाहर निकालना, पाट-बाजोट आदि में से खटमल निकालना आदि-आदि । ग्रन्थान १३७८ के लगभग है। 'कुमति विहंडन' इस ग्रन्थ के नाम से ही पता लगता है कुमति को दूर सदबुद्धि प्रदान करना । इसके कुछेक विषय इस प्रकार हैं-गृहस्थ को सूत्र पढ़ाना, व्याख्यान देने रात्रि में अन्य स्थान में जाना, नित्यपिंड देने का विधान, नव पदार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नय निक्षेप आदि-आदि। इस कृति का ग्रन्थान १२४२ के लगभग हैं । "प्रश्नोत्तर सार्ध शतक" इसमें १५१ प्रश्नोत्तर हैं जैसे-भगवान द्वारा फोडी गई लब्धि की चर्चा, पुण्य की करणी आज्ञा में या बाहर, साधु अकेला रह सकता है या नहीं ? शुभ योग संवर है या नहीं ? आदिआदि । इसका ग्रन्थान १५७८ है। 'चरचा रत्नमाला' यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के प्रश्नों का आगम तथा अन्य ग्रन्थों के प्रमाणों से समाधान प्रस्तुत करता है। इसका ग्रन्थान १४६१ है। 'भिक्खू पृच्छा' 'बड़ा ध्यान' 'छोटा ध्यान' दोनों कृतियों में चंचल मन को एकाग्र बनाने के सुन्दर तरीके बतलाये हैं-~-ध्यान और स्वाध्याय। यह ग्रन्थ गद्यात्मक है। ग्रन्थाग्र १५० अनुष्टुप् प्रमाण है। 'प्रश्नोत्तर तत्व बोध', 'बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्व बोध' ये दोनों ग्रन्थ मूर्तिपूजक श्रावक कालरामजी आदि श्रावकों की जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं। प्रश्नोत्तर में २७ अधिकार हैं, जिनमें १५१७ दोहे, १६३ सोरठे, १० छंद, १० कलश, १८३ अनुष्टुप् पद्य परिमाण, १० वतिकाएँ एवं समग्र पद्यों की संख्या १८८३ है। बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध की १२४८ गद्यात्मक हैं। श्रद्धा री चौपाई, जिनाज्ञा री चौपाई, अकल्पती व्यावच री चौपाई, झीणी चरचा यह ग्रन्थ लयबद्ध हैं। इनमें स्थान-स्थान पर आगमों के उद्धरण दिये हुए हैं, जिससे पाठकों को अल्प परिश्रम से अधिक ज्ञान सुगमता से प्राप्त हो सकता है। इसकी २२ ढालें, ५२ दोहे ५ सोरठे, समग्र पद्य ७४७ हैं। बड़ी रोचक होने से आज भी सैकड़ों श्रावकों के कण्ठस्थ मिलेगी। 'झीणी चरचा के बोल' यह गद्यात्मक है। द्रव्यजीव और भावजीव की दुरूह चर्चा सरल तौर-तरीकों से समझाई गई है, २२५ गाथाएँ हैं। 'झीणी ज्ञान' यह ग्रन्थ सूक्ष्म ज्ञान का दाता है जो जटिल विषय है। जैसे केवली समुद्घात करते समय कितने योगों को काम में लेते हैं, लोक स्थिति कैसी है, स्वर्ग-नरक कहाँ है, रोम आहार, ओज-आहार, कवल आहार कौन-कौन से दंडकों में में होता है। आत्मा के साधक बाधक तत्व कौन-कौन से हैं आदि-आदि को बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है। 'भिक्ष कृत हुण्डी की जोड़' इसमें तत्कालीन ज्वलंत प्रश्नों का समाधान है-वे ये हैं-व्रताव्रत, जिनाज्ञा, दान-दया, अनुकंपा, सम्यक्त्व, आश्रव, सावद्य-निरवद्य क्रिया, साध्वाचार आदि । 'प्रचूनी बोल' इसमें शास्त्र-सम्मत विवादास्पद विषयों का संग्रह कर स्पष्टीकरण किया गया है । इसके ३०८ बोल हैं । ग्रन्थ पठनीय है। व्याकरण-हमारे धर्मसंघ में सवा सौ वर्ष पूर्व संस्कृत भाषा को कोई नहीं जानता था, क्योंकि अवैतनिक संस्कृतज्ञ पण्डित मिलना मुश्किल था, अस्तु, जयाचार्य की अध्ययनशीलता एवं चेष्टा ने खोज कर ही डाली। आप जयपुर में थे तब एक लड़का दर्शनार्थ आया। वार्तालाप के दौरान उस छात्र ने कहा-मैं संस्कृत व्याकरण पढ़ता हूँ। आपने कहा-क्या पढ़ा हुआ पाठ मुझे बता सकते हो? उस छात्र ने पाठ बताया, तब आपने कहा-तुम प्रतिदिन स्कूल में पढ़ कर मुझे सुनाया करो। आपने उस छोटे से बालक से सुने हुए संस्कृत पाठों को राजस्थानी भाषा में प्रतिबद्ध कर डाला । देखिए ज्ञान की पिपासा! इतने बड़े धर्मसंघ के नायक होते हुए भी एक बच्चे से ज्ञान लेकर संस्कृत का विकास किया। इसके आगे 'आख्यात री जोड़' और साधनिका ये दोनों ग्रन्थ संस्कृतज्ञों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । 'दर्शन' दर्शन में 'नयचक्र री जोड़' 'नयचक्र' इसके रचयिता देवचन्द्रसूरि थे। संस्कृत भाषा में होने से हर व्यक्ति के लिए पढ़ना कठिन थी, साथ ही दर्शन का ज्ञान ही गहन होता है। इस दृष्टि से जयाचार्य ने सर्वजनोपयोगी बनाने के लिए राजस्थानी भाषा में रच डाला। इसमें १४४ दोहे, २० सोरठे, १८ छन्द, ७१८ गाथाएँ, ८७८ पद्य परिमाण, १३५ वार्तिकाएँ तथा सर्वपद्य १७७८ हैं । उपदेश-"उपदेश री चौपी" इस ग्रन्थ में ३८ डालें, १८ दोहे, सर्वपद्य ५०३ हैं। जीवन उत्थान हेतु प्रेरणादायक, वैराग्य रंग से ओत-प्रोत मानस को छू लेने वाली गीतिकाएँ हैं। गीत अन्तर्मन की सबसे सरस और मार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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