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________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५३१ टीकम डोसी की चरचा टीकम डोसी कच्छ के मोरवी बंदर नामक शहर के वासी जैन श्रावक थे। वे तत्त्वज्ञ और आगमों के जानकार थे। जोधपुर के पुष्कर ब्राह्मण श्री गेरूलालजी व्यास स्वामीजी (आचार्य भिक्षु) के श्रावक थे। एक बार वे मोरवी गए। वहाँ टीकम डोसी से बातचीत की। टीकम डोसी ने स्वामीजी के मंतव्यों के रहस्यों को समझा। उनके मन में स्वामीजी से मिलने की उत्कण्ठा जागी । वे अपने अनेक प्रश्नों का समाधान पाने के लिए वि०सं० १८५३ में कच्छ से पाली आए। उन्होंने अपनी शंकाओं के उनतीस ओलिया (ऐसे पन्ने जो लम्बे ज्यादा हों और चौड़े कम) लिख रखे थे। वे बहभाषी थे। स्वामीजी ने उन ओलियों को पढ़ा और एक-एक शंका का समाधान लिखकर पढ़ाते गए । लगभग छबीस ओलिओं में लिखी सारी शंकाओं का समाधान हो गया, किन्तु तीन ओलियों में लिखी शंकाओं का समाधान नहीं हो पाया । वे स्वामीजी के तत्त्वज्ञान और प्रश्न-समाहित करने की कला से बहुत प्रभावित हुए। वि०सं० १८५६ में टीकम डोसी का मन योग के (मन, वचन और काया) विषय में शंकित हो गया। शंकासमाधान करने वे मारवाड़ आए । प्रश्नों का समाधान पा कच्छ लौट गए। कुछ वर्षों बाद पुन: मन शंकित हो गया। इस बार वे स्वामीजी के पास नहीं आ सके । अन्त में पन्द्रह दिन का चौबिहार अनशन कर मृत्यु प्राप्त की। __ स्वामीजी ने टीकम डोसी से हुई चरचा को लिपिबद्ध कर लिया। वह 'टीकम डोसी की चरचा' के नाम प्रसिद्ध है। यह राजस्थानी गद्य में है। भीमब्जयाचार्य आप तेरापंथ के चौथे आचार्य थे । आपका नाम था 'जीतमलजी' । परन्तु आप जयाचार्य के नाम से ही प्रसिद्ध थे। आपका जन्म जोधपुर डिवीजन के अन्तर्गत 'रोयट' ग्राम में विक्रम संवत् १८६० आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ। बाल्यकाल से ही वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे। जब आप नौ वर्ष के हुए तब वि०सं० १८६६ में माघ कृष्णा सप्तमी को जयपुर में प्रवजित हुए । आपको प्रारम्भ से ही बहुश्रुत मुनिश्री हेमराजजी स्वामी को सान्निध्य मिला, अतः आपका ज्ञान शतशाखी वट की भाँति फैलता ही गया। लगभग बारह वर्ष तक उनके उपपात में मुनिचर्या के शिक्षण के साथ-साथ आगमों का भी गहरा अनुशीलन किया। तथ्यों के बार-बार आलोड़न-विलोड़न से आपकी मेधा तीखी होती गई और उसमें नए-नए उन्मेष आने लगे। वि०सं० १६०८ माघ पूर्णिमा के दिन आप आचार्य पद पर आसीन हुए। श्रीमज्जयाचार्य श्रुत के अनन्य उपासक थे। विद्यार्जन की लालसा ने उन्हें निरन्तर विद्यार्थी बनाये रखा । यही कारण है कि उन्होंने अपने जीवन काल में लाखों-लाखों पद्यों की स्वाध्याय के साथ-साथ साढ़े तीन लाख पद्य-प्रमाण का राजस्थानी साहित्य रचा । बाल्यावस्था से ही वे अध्ययन के साथ-साथ साहित्य का सृजन भी करने लगे थे। उन्होंने ग्यारह वर्ष की लघु वय में 'संत गुणमाला' की रचना कर सबको आश्चर्य में डाल दिया । धीरे-धीरे ज्ञान की प्रौढ़ता के साथ उनकी रचनाओं में भी प्रौढ़ता आती गई । वर्तमान की आधुनिक विधाओं में भी उनकी लेखनी अबाध गति से चली । उनमें संस्मरण-लेखन, जीवनी-लेखन, कथा-लेखन आदि मुख्य हैं । आपने राजस्थानी गद्य-पद्य में अपने जीवनकाल का इतिहास लिपिबद्ध किया और प्राचीन इतिहास की कड़ी की भी सुरक्षित रखने का प्रयास किया । यदि आप इस ओर सजग नहीं होते तो सम्भव है तेरापंथी इतिहास की प्रारम्भिक ऐतिहासिक घटनाएँ हमें उपलब्ध नहीं होती। श्रीमज्जयाचार्य बीसवीं शती के महान राजस्थानी साहित्यकार और सरस्वती के वरद पुत्र थे । राजस्थानी भाषा में इतना विपुल साहित्य किसी एक व्यक्ति ने लिखा हो ऐसा ज्ञात नहीं है । आप द्वारा रचित १२८ ग्रन्थ १. भिक्ष, दृष्टान्त, १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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