SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 897
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड भाव की चर्चा जैन दर्शन में भाव पाँच माने गये हैं-औदयिक, औपशभिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । भाव का अर्थ है-कर्मों के उदय, उपशम आदि से होने वाली अवस्था। आचार्य भिक्षु ने आठ कर्मों के इन पाँच भावों का विस्तार से वर्णन किया है। जैसे 'उदै भाव मोहकर्म उदै सुउद भाव छै । ते तो सावद छ। सेष ७ कर्मों रे उदै सु उदै भाव छै ते सावद निर्वद दोनुई नथी। अनै उपसम भाव छै ते तो मोहणीकर्म उपसमिया थाय । दर्शणमोहणी उपसमियाँ तो उपसम समकत पामें अनै चार्तमोहिणी उपसमियाँ उपसम चार्त पांमें।' ..........."इव्रत तो अनादकालरी छ। मोहणी कर्म रा जोग सु आसा बांध्या लाग रही छ। यांसु सावद कृतव्य करै ते पिण मोहिणी कर्मरा उदासु करै छ। ते पिण इण उदै रा कृतव्य औगण छ। पिण खयोपसम में औगण नहीं।.......... योग की चर्चा जैन दर्शन में तीन योग माने हैं-मनो-योग, वचन-योग और काय-योग। ये शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । उनके 'लघु निबन्ध योग री चरचा, में इनके शुभ-अशुभ होने के निमित्तों की चर्चा है। इस विषय का इतना सूक्ष्म विवेचन विरल ही मिलता है। एक सौ इक्यासी बोलां री हुंडी हंडी आगम को सप्रमाण संक्षिप्त निरूपण करने की विधा है। आचार्य भिक्षु ने साधु-साध्वियों की आगम विषयों की विशेष स्मृति रह सके, इसलिए विभिन्न हुंडियां बनाई। उन दिनों स्थान-स्थान पर धार्मिक चर्चाएँ होती थीं। जय-पराजय का प्रश्न उभरा हुआ था। जो वादी आगमिक स्थलों के अधिक प्रमाण प्रस्तुत करने में कुशल होता था वह अपने प्रतिवादी को सहजता से पराजित कर देता । उस समय से हुंडियां बहुत काम आती थीं। क्योंकि आगमों के सारे विषयों की स्मृति रख पाना बहुत कठिन कार्य है। किन्तु आवश्यक स्थलों की स्मृति भी किसी विधि से ही रखी जा सकती थी। इस विषय में हुंडियों ने बहुत सहयोग दिया। प्रस्तुत ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न विषयों पर भिन्न-भिन्न आगमों के प्रमाण प्रस्तुत किये हुए हैं। सारे विषय १८१ हैं । इस ग्रन्थ का प्रारम्भ साहित्यिक ढंग से हुआ है। जे हलुकरमी जीव होसी ते सुण-सुण ने हरष पामसी । त्यागने न्याय मारग बतायां सु सुसाधां ने उत्तम जाणसी । कुगुरु ने छोड़ सतगुरु ने आदरसी । जे भारी कर्मा होसी से सुण-सुण ने धेख पामसी । ..........." । त्यांने दिष्टंत देइ नै ओलखावै छै ; चोर ने चांनगो न सुहावै ज्यू भारी करमां जीवां ने आचार री बात न सुहावै । घुघु ने दिन ने न सूजे, ज्यू भारी करमां............ । रोगी ने वाजिक न सुहावै, ज्यूं भारी करमां...........। ताव चढ़यो तिण नै धान न भावे, ज्यू........... | पांव रोगी ने खाज सुहाव, ज्यं...........| सरपरा जहर चढ्यां ने नींव कडवो न लाग, ज्यू भारी करमा जीवां नै भिष्ट आचारी भागल गुरु कडवा न लागै । .........." हंडी के क्रम को समझने के लिए उसके कुछ बोल नीचे लिखे जा रहे हैं(१) साध थई नै सिज्यातरपिंड भोगवै त्यांने अणाचारी कह्या। . -साख सूत्र दसवेकालक, अधेन ३। (बोल २८) (२) साध थई नै सिज्यातरपिंड भोगवै तिण ने मासिक प्राछित आवै । -साख सूत्र नसीत, उदेसो २ । ............ । इसका ग्रन्थमान लगभग ७०० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy