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________________ अपन श साहित्य-परम्परा ४८५ .................................................. . . ... . .. .... अमेरियन्स प्राकृत्स" (पेरिस, १९३८) प्रायः सभी भाषिक अंगों पर प्रकाश डालने वाला है। नित्ति डोल्ची ने पुरुषोत्तम के "प्राकृतानुशासन" पेरिस, १९३८) तथा रामशर्मन् तर्कवागीश के "प्राकृतकल्पतरु" (पेरिस, १९३९) का सुन्दर संस्करण तैयार कर फ्रांसीसी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया। व्याकरण की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण कार्य रिचर्ड पिशेल का "ग्रेमेटिक देअर प्राकृत-श्प्राखन" अद्भुत माना जाता है, जिसका प्रकाशन १६०० ई० में स्ट्रासबर्ग से हुआ। ___ इधर भाषाविज्ञान की कई नवीन प्रवृत्तियों का जन्म तथा विकास हुआ। परिणामतः भाषाशास्त्र के विभिन्न आयामों का प्रकाशन हुआ। उनमें ध्वनिविज्ञान. पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान तथा शब्द व्युत्पत्ति व शब्दकोशी अध्ययन प्रमुख कहे जाते हैं । ध्वनिविज्ञान विषयक अध्ययन करने वालों में "मिडिल-इण्डो-आर्यन" के उपसर्ग, प्रत्यय, ध्वनि. विषयक पद्धति तथा भाषिक उच्चारों आदि का विश्लेषण किया गया। इस प्रकार के अध्ययन करने वालों में प्रमुख रूप से आर० एल० टर्नर, एल. ए० स्वाजर्स चाइल्ड, जार्ज एस० लेन, के० आर० नार्मन के नाम लिए जा सकते हैं। एल० आल्सडोर्फ ने नव्य भारती आर्य-भाषाओं के उद्गम पर बहुअ अच्छा अध्ययन किया जो रूप-रचना विषयक है । लुइप एज० ग्रे ने ‘आब्जर्वेशन्स आन मिडिल इण्डियन मार्कोलाजी” (बुलेटिन स्कूल आव् ओरियन्टल स्टडीज, लन्दन, जिल्द ८, पृ० ५६३-७७, सन् १९३५-३७) में संस्कृत व वैदिक संस्कृत के रूप-सादृश्यों को ध्यान में रखकर उनकी समानता व कार्यों का विश्लेषण किया है । इस भाषावैज्ञानिक शाखा पर कार्य करने वाले उल्लेखनीय विद्वानों व भाषाशास्त्रियों के नाम हैं-ज्यूल ब्लास एडजर्टन, ए० स्वार्स चाइल्ड, के० आर० नार्मन, एस. एन. घोषाल, डा० के० डी० बीस ।। __ वाक्य-विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करने वाले विद्वानों में मुख्य रूप से डॉ० के० डी० वीस, एच० हेन्द्रिक सेन, पिसानी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस अध्ययन के परिणामस्वरूप कई महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आए । एच० हेन्द्रिकसेन ने अपने एक लेख “ए सिन्टेक्टिक रूल इन पाली एण्ड अर्द्ध मागधी" के प्रयोग की वृद्धिंगत पाँच अवस्थाओं का उद्घाटन किया है । के० अमृतराव, डॉ. के. डी. वीस, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, कुइपर आदि ने प्राकृत पर पर द्रविड़ तथा अन्य आर्येतर भाषाओं के प्रभाव का अध्ययन किया। भाषाकोशीय तथा व्युत्पत्तिमूलक अध्ययन की दृष्टि से डब्ल्यू० एन० ब्राउन का अध्ययन महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृत और अपभ्रंश के सम्बन्ध में सन् १९३२ में कोशीय टिप्पणियाँ लिखी थीं और १९३५-३७ ई० में “गौरीशंकर ओझा स्मृतिग्रन्थ” में “सम लेक्सिकल मेटरियल इन जैन महाराष्ट्री प्राकृत" निबन्ध में वीरदेवगणि ने के 'महीपालचरित" से शब्दकोशीय विवरण प्रस्तुत किया था । ग्रे ने अपने शोधपूर्ण निबन्ध में जो कि "फिप्टीन प्राकृत-इण्डो-युरोपियन एटिमोलाजीज” शीर्षक से जर्नल आव् द अमेरिकन ओरियन्टल सोसायटी (६०, ३६१-६९) में सन् १९४० में प्रकाशित हुआ था । अपने इस निबन्ध में ग्रे महोदय ने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि प्राकृत के कुछ शब्द यारोपीय परिवार के विदेशी शब्द हैं । कोल, जे० ब्लाख, आर० एल० टर्नर, गुस्तेव राथ, कुइपर, के० आर० नार्मन, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आदि भाषा-वैज्ञानिकों ने शब्द-व्युत्पत्ति की दृष्टि से पर्याप्त अनुशीलन किया । वाकरनागल ने प्राकृत के शब्द का व्युत्पत्ति की दृष्टि से अच्छा अध्ययन किया। इसी प्रकार संस्कृत पर प्राकृत का प्रभाव दर्शाने वाले निबन्ध भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे । उनमें से गाइगर स्मृति-ग्रन्थ में प्रकाशित एच० ओरटेल का निबन्ध "प्राकृतिसिज्म इन छान्दोग्योपनिषद्” (लिपजिग, १६३१) तथा ए० सी० वूलनर के "प्राकृत एण्ड नान-आर्यन स्ट्रेटा इन द वाकेबुलरी आव संस्कृत" (आशुतोष मेमोरियल १. प्रोसीडिंग्स आव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १६७०, पृ० २२३. २. वही, पृ० २३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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