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________________ ४८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ....................................... दिगम्बर आगमिक ग्रन्थों का भाषा व विषयवस्तु दोनों रूपों में पर्यालोचन किया था। उनका प्रबन्ध सन् १९२३ में हेम्बर्ग से "दिगम्बर-टेक्स्टे : ईन दर्शतेलगु इहरेर प्राख उन्ड इन्हाल्ट्स" के नाम से प्रकाशित हुआ था। भारतीय विद्वानों में डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, हीरालाल जैन, पं० बेचरदास दोशी, डॉ० प्रबोध पण्डित, सिद्धान्ताचार्य, प० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तचार्य, पं० फूलचन्द्र, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० सुखलालजी संघवी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. राजाराम जैन, डॉ० एच० सी० भायाणी, डॉ. के. आर. चन्द्र, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, डॉ० प्रेमसुमन और लेखक के नाम उर लेखनीय हैं। डॉ० उपाध्ये ने एक दर्जन प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया । अपभ्रंश के ‘परमात्मप्रकाश" का सम्पादन आपने ही किया । “प्रवचनसार" और 'तिलोयपण्णत्ति' जैसे ग्रन्थों का सफल सम्पादन का श्रेय आपको है। साहित्यिक तथा दार्शनिक दोनों प्रकार के ग्रन्थों का आपने सुन्दर सम्पादन किया। आचार्य सिद्धसेन के "सन्मतिसूत्र" का भी सुन्दर संस्करण आपने प्रस्तुत किया, जो बम्बई से प्रकाशित हुआ। प्राच्य विद्याओं के क्षेत्र में आपका मौलिक एवं अभूतपूर्व योगदान रहा है । डॉ० हीरालाल जैन और सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ धवला, जयधवला आदि का सम्पादन व अनुवाद कर उसे जनसुलभ बनाया । अपभ्रंश ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ० हीरालाल जैन, पी० एल० वैद्य, डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, पं० परमानन्द शास्त्री, डॉ० राजाराम जैन, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन और डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री को है।' प० परमानन्द जैन शास्त्री के “जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह" के पूर्व तक अपभ्रंश की लगभग २५ रचनाओं का पता चलता था, किन्तु उनके प्रशस्ति-संग्रह प्रकाशित होने से १२६ रचनाएँ प्रकाश में आ गई । लेखक ने "अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ" में अपभ्रंश के अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थों के अंश उद्धृत कर लगभग चार सौ अपभ्रश के ग्रन्थों को प्रकाशित कर दिया है। जिन अज्ञात व अप्रकाशित रचनाओं को पुस्तक में सम्मिलित नहीं किया गया, उनमें से कुछ नाम हैं (१) शीतलनाथकथा (श्री दि० जैन मन्दिर, घियामंडी, मथुरा), (२) रविवासरकथा-मध् (श्री दि० जैन मन्दिर, कामा), (३) आदित्यवारकथा-अर्जुन (श्री दि० जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली)। इनके अतिरिक्त ईडर व नागौर के जैन भण्डारों में पाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण अपभ्रंश रचनाओं की भी जानकारी मिली है। उन सब को सम्मिलित करके आज अपभ्रंश-साहित्य की छोटी-बड़ी सभी रचनाओं को मिलाकर उसकी संख्या पांच सौ तक पहुंच गई है। शोध व अनुसन्धान की दिशाओं में आज एक बहुत बड़ा क्षेत्र विद्वानों का राह जोह रहा है। शोध-कार्य की कमी नहीं है, श्रमपूर्वक कार्य करने वाले विद्वानों की कमी है। विगत तीन दशकों में जहाँ प्राकृत व्याकरणों के कई संस्करण प्रकाशित हुए, वहीं रिचर्ड पिशेल, सिल्वालेवी और डॉ. कीथ के अन्तनिरीक्षण के परिणामस्वरूप संस्कृत के नाटकों में प्राकृत का महत्वपूर्ण योग प्रस्थापित हुआ। आर० श्मित ने शौरसेनी प्राकृत के सम्बन्ध में उसके नियमों का (एलीमेन्टरबुख देर शौरसेनी, हनोवर. १९२४), जार्ज ग्रियर्सन ने पैशाची प्राकृत का, डॉ. जेकोबी तथा आल्सडोर्फ ने महाराष्ट्री तथा जैन महाराट्री का और डब्ल्यू. ई० क्लार्क ने मागधी और अर्द्धमागधी का एवं ए. बनर्जी और शास्त्री ने मागधी का (द एवोल्युशन आव मागधी, आक्सफोर्ड, १९१२) विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया था। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से नित्ति डोल्ची का विद्वत्तापूर्ण कार्य “लेस -.0 १. प्राकृत स्टडीज आउटसाइड इण्डिया (१९२०-६६) शीर्षक लेख एस० डी० लद्द , प्रोसीडिास आव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २०६ २. डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री : अपभ्रंग भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन १९७२; तथा - द्रष्टव्य हैडॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : भाषाशास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूप-रेखा, विश्व विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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