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________________ सेवा : अर्थ और सही समझ (३) प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना। (४) सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना। व्यवहारभाष्य में प्रत्येक वैयावृत्त्य स्थान के तेरह द्वार उल्लिखित हैं जैसे-- (१) भोजन लाकर देना । (२) पानी लाकर देना, (३) संस्तारक करना (४) आसन देना, (५) क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना, (६) पाद-प्रमार्जन करना, (७) औषधि पिलाना, (८) आँख का रोग होने पर औषधि लाकर देना, (8) मार्ग में विहार करते समय भार लेना तथा मर्दन आदि करना, (१०) राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना एवं शरीर को हानि पहुँचाने वाले व उपधि चुराने वालों से संरक्षण करना । (११) बाहर से आने पर दण्ड (यष्टि) ग्रहण करना, (१२) ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना, (१३) उच्चार, प्रस्त्रवण और श्लेष्म-पात्र की व्यवस्था करना। तेरापंथ धर्मसंघ के दर्पण में भी शासन-सम्मत सेवा के आदर्श स्पष्टता से प्रतिबिम्बित हुए हैं । आचार्य भिक्षु ने सेवाभावना पर अत्यन्त बल दिया है । उन्होंने कहा-जो साधु रुग्ण, ग्लान की सेवा से इन्कार करता है, वह महान दोष का भागी है। इससे सेवा-भावना को पोषण मिला । अपनी लौह-लेखनी से सेवा की दृष्टि से उन्होंने विधान पत्र में कुछ धाराएँ लिखीं (१) कोई साधु रुग्ण हो या बूढ़ा हो, तब दूसरे साधु अग्लानभाव से उसकी सेवा करें। (२) उसे संलेखना--विशिष्ट तपस्या करने को न उकसाएँ । (३) वह विहार करना चाहे और उसकी आँखें दुर्बल हो तो दूसरा साधु उसे देख-देखकर चलाए। (४) वह रुग्ण हो तो उसका बोझ दूसरे साधु लें । (५) उसका मन चढ़ता रहे, वैसा कार्य करे। (६) उसमें साधुपन हो तो उसे 'छेह' न दें-छोड़े नहीं । (७) वह अपनी स्वतन्त्र भावना से वैराग्यपूर्वक संलेखना करना चाहे तो उसे सहयोग दें, उसकी सेवा करें। (८) कदाचित् एक साधु उसकी सेवा करने में अपने को असमर्थ माने तो सभी साधु अनुक्रम से उसकी सेवा करें। () कोई सेवा न करे तो उसे टोका जाए और उससे कराई जाए। (१०) रुग्ण साधु को सब इकट्ठे होकर कहें, व आहार दिया जाए। उन्होंने शारीरिक अयोग्यता वाले व्यक्ति को गण में रखने योग्य बतलाया है। उन्होंने वैसे व्यक्ति को गण में रखने के अयोग्य बतलाया है जो अपने स्वभाव पर नियन्त्रण न रख सके। एक छोटी सी घटना है---उनके प्रिय शिष्य हेमराजजी स्वामी गोचरी गए। दो दालें साथ मिलाकर लाए। मूंग की दाल और चने की दाल । स्वामीजी ने कहा-क्या है ? हेमराजजी स्वामी ने उत्तर दिया-महाराज दाल है। कैसी दाल ? यह लगती है, पतली और जाड़ी कैसे? उन्होंने कहा-मूंग और चने की दाल है। स्वामीजी ने कहा--मिलाकर कैसे लाए ? उत्तर मिला--दाल, दाल है । क्या फर्क पड़ता है ? यह भी दाल है, वह भी दाल है। आचार्य भिक्षु ने कहा-...फर्क तो नहीं पड़ता होगा, पर कोई बीमार साधु हो और उसे मूंग की दाल की जरूरत हो तो चने की दाल कैसे खप सकती है ? तुमने क्यो मिलाया? उस प्रमाद के लिए आचार्य भिक्षु ने इतना बड़ा उलाहना दिया कि हेमराजजी स्वामी जैसे मुनि के लिए भी झेल पाना काफी कठिन हो गया। ____ एक प्रसंग मिलता है कि मुनि श्री चिरंजीलालजी के साथ मुनि तिरखाराम थे । मुनिश्री अस्वस्थ हो गए । अतिसार की बीमारी से ग्रस्त । सेवा का प्रसंग उपस्थित हुआ। मुनि तिरखारामजी इन्कार हो गए। जब पूज्य आचार्य प्रवर डालगणी की सन्निधि में साधु-समूह उपस्थित हुआ, पूछताछ की गई, तब उस साधु ने बताया मुझे सूग (घृणा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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