SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड सेवा किसी दूसरे की नहीं की जाती। सेवार्थी स्वयं ही सेवा करता है। जिस सेवा में शर्त होती है वह सेवा नहीं, क्रिया की प्रतिक्रिया है, दी हुई सेवा के प्रतिदान की याचना है और है एक प्रकार का व्यापार । सही दृष्टिकोण और यथार्थ प्रक्रिया से जो सेवा का व्रत लेता है, उसके शरीर में न रोग रहता है, न मन में चिन्ता। न हृदय में भय रहता है, न बुद्धि में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया । और न आत्मा में अपने-पराए का भेदभाव । सेवा में मुख्यतः पाँच बातें ध्यातव्य हैं (१) बिना किसी भेदभाव के सेव्य के प्रति श्रद्धाभाव । (२) निष्काम भाव से सेवा कर हम किसी पर उपकार नहीं करते, प्रत्युत हमें सेवा का अवसर देकर हमारी सेवा स्वीकार कर वह हमें उपकृत करता है--ऐसा स्वस्थ चिन्तन । (३) जिसकी सेवा करते हैं, उसके लिके सामर्थ्यानुसार समय और श्रम की पहले से सुरक्षा । (४) उसकी अपेक्षाओं, आवश्यकताओं के प्रति सजगता । (५) सेव्य व्यक्ति की रोग आदि से मुक्ति के लिए सतत मंगल भावना । महावीर ने कहा-श्रमण निर्ग्रन्थ अग्लान भाव से आचार्य, उपाध्याय स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, कुल, गण, संघ और सार्मिक की वैयावृत्त्य करने वाला महान् कर्मक्षय और आत्यन्तिक पर्यवसान करने वाला होता है । शिष्य ने पूछाभंते ! गुरु और सधार्मिक की शुश्रुषा (पर्युपासना) से जीव किस तत्त्व को उपलब्ध होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया गुरु और सार्मिक की सेवा से वह विनय को प्राप्त होता है, विनय-प्राप्त व्यक्ति गुरु का अविनय नहीं करता, परिवाद नहीं करता । इसीलिए वह नैरयिक, तिर्यंच.यौनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। श्लाघा, गुण प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । विनयमूलक समस्त प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और अनेक अनेक व्यक्तियों को विनय पथ पर गतिशील करता है। एक रुग्ण या असमर्थ व्यक्ति के साथ स्वयं तीर्थंकरों ने इतना तादात्म्य स्थापित किया है कि उनकी वाणी के वातायन से सहज झाँका जा सकता है, यथा “जे गिलाणं पडियरइ, से मं पडियरति"-जो ग्लान साधु की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है। ग्लान साधु की अग्लानभाव से सेवा करने वाला मेरी भूमिका तक पहुँच जाता है, तीर्थकर हो जाता है । “सव्वं किलपडिवाई वेयावच्च अपडिवाई" संसार में सब कुछ प्रतिपाती है। एकमात्र वैयावृत्त्य ही ऐसा तत्त्व है जो अप्रतिपाती है। वैयावृत्य में व्याप्त मुक्ति एकान्त निर्जरा का भागी होता है। बौद्ध साहित्य में भी सेवा पर अत्यधिक बल दिया है। विनयपिटक में एक घटना का उल्लेख किया गया है कि---एक भिक्षु को विशूचिका की बीमारी हो गई। बुद्ध चहल-कदमी करते हुए वहीं जा पहुंचे। उन्होंने देखा गन्दगी से लथपथ छटपटाते एक भिक्षु को। कोई परिचारक नहीं । मन करुणा से भर गया । भिक्ष ओं को आमन्त्रित किया। पूछने पर भिक्ष ओं ने बताया- यह किसी का सहयोग नहीं करता था, इसलिये हमने भी इसकी उपेक्षा की। बुद्ध ने स्वयं नहलाया, उसकी चिकित्सा की समुचित व्यवस्था की। और उसी दिन से अपने भिक्षु-संघ में यह विधान किया कि प्रत्येक भिक्ष अपना धर्म मानकर ग्लान भिक्षु की सेवा करे अन्यथा वह दोष का भागी होगा। महावीर ने कहा-साधु विहार कर जिस गाँव से गुजरे वहाँ यदि कोई रुग्ण साधु या साध्वी विद्यमान हो तो उनसे सेवा के लिए पूछताछ करे । अपेक्षा हो तो वहाँ रहे, आवश्यकता न हो तो अन्यत्र चला जाए । पता चलने पर भी यदि उपेक्षाभाव से आगे बढ़ता है, तो वह संघीय अनुशासन का भंग करता है और प्रायश्चित्त का भागी होता है। सेवा संघीय प्रभावना का महत्त्वपूर्ण अंग है । वैयावृत्त्य क्यों करें ? इसके समाधान में चार कारणों का उल्लेख किया गया है (१) समाधि उत्पन्न करना । (२) विचिकित्सा ग्लानि का निवारण करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy