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________________ १०० कर्मयोगी श्री केसरीमा कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुरागा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड आती है । मैं किसी का मल-मूत्र नहीं उठा सकता । पूज्य डालगणी ने कहा- यदि तुम बीमार हो गए तो तुम्हारी परिचर्या कौन करेगा ? संघ में बह रहने के योग्य नहीं जो समय पर सेवा से जी चराता है। उनका संघ विच्छेद कर दिया गया । आत्मीयता की परख का यही समय होता है। कौन अपना है-कौन पराया? किसी से पूछने की अपेक्षा नहीं होती। जब शक्तियाँ क्षीण होती हैं, व्यक्ति अपने आपको असहाय अनुभव करता है। उस समय उसका अभिन्न बनकर जो सहयोग करता है, वही होता है सच्चा आत्मीय । एक बार ब्यावर में एक साध्वी बीमार हो गई। उन्हें सुजानगढ़ लाना जरूरी था। साध्वीश्री अणचांजी ने उन्हें कन्धे पर बिठाकर सुजानगढ़ पहुँचा दिया । ऐसे एक नहीं तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक घटना प्रसंग हैं जिन्हें देख-सुनकर विरोधी से विरोधी व्यक्ति भी यह कहने के लिए विवश हो जाता है कि तेरापंथ धर्मसंघ की सेवा-भावना बेजोड़ है। चिकित्सा के चतुष्पाद होते हैं-वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक । चारों में से एक का भी अभाव चिकित्सा को असफल करता है। सेवा देना और लेना अपने आप में एक कला है। सेवा देने वाला कितना भी कुशल क्यों न हो पर लेने वाला यदि अयोग्य है तो वह कभी समाधि का वरण नहीं कर सकता । प्रत्युत परिचारक के उत्साह को भी क्षीण कर देता है । विनयपिटक में उस ग्लान या सेवाप्रार्थी को अयोग्य बतलाया है जो (१) साथियों के अनुकूल करने वाला नहीं होता । (२) अनुकूल की मात्रा नहीं जानता । (३) औषध सेवन नहीं करता । (४) हितेच्छुक परिचारक से ठीक-ठीक रोग की बात प्रकट नहीं करता। (५) दुःखमय, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अप्रिय और प्राणहर शारीरिक पीड़ा सहने में अक्षम होता है। ऐसे व्यक्ति की सेवा करना दुष्कर, दुष्करतर है । वह परिचारक भी अयोग्य है जो (अ) दवा ठीक नहीं कर सकता । (ब) अनुकूल-प्रतिकूल (वस्तु) को नहीं जानता । (स) प्रतिकूल को देता है. अनुकूल को हटाता है। (द) मल-मूत्र, थूक और वमन को हटाने में घृणा करता है। (य) रोगी को समय-समय पर धार्मिक कथा द्वारा समुत्तेजित और सम्प्रहपित करने में समर्थ नहीं होता।' सेवा लेने और देने के तीसरे विकल्प में से हम सब गुजरते हैं। अपेक्षा है हम उसकी अर्हता प्राप्त करें। सेवा लेने में हीनता की अनुभूति न हो और देने में उत्कर्ष की। हम किसी की सेवा कर उस पर एहसान नहीं करते, प्रत्युत अपने आत्मधर्म को पुष्ट करते हैं । अतः कवि की मार्मिक पंक्तियाँ प्रतिक्षण हमारी अन्तश्चेतना को झंकृत करती हैं गर थामो किसी का हाथ न करो अभिमान यह तुम्हारा फर्ज है। कहीं पानी भी पीओ तो समझो उसका तुम्हारे पर कर्ज है ।। छोटे-मोटे उपकारों का तुम न लगाओ हिसाब इतना । तुमने अच्छा किया या बुरा कुदरत के रजिस्टर में सब दर्ज है। १. विनयपिटक (३ महावग्ग ८७।२, ४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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