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________________ १८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड शार्ग को प्रशस्त करते हैं, वहाँ लौकिक किंवा व्यावहारिक जीवन के उत्थान में भी सहायक होते हैं । सात्त्विक जीवननिर्वाह हेतु मनुष्य को प्रेरित करना उनका मुख्य लक्ष्य है। अत: स्वास्थ्यरक्षा एवं आरोग्य की दृष्टि से जैन धर्म आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अत्यन्त निकट है । क्योंकि जीवन की कसौटी पर कसे हुए सिद्धान्त विज्ञान की तुला में जब समानता प्राप्त कर लेते हैं तो जीवनोपयोगी उन सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार प्राप्त हो जाता है। अतः मानव-जीवन की सार्थकता का निर्वाह करने वाले मन-वचन-काय में शुद्धता करने वाले, सात्त्विक एवं मानवोचित विशुद्ध भावों का उद्भव करने वाले नियम और सिद्धान्त जब प्रकृति के साँचे में ढल जाते हैं तो स्वतः ही वैज्ञानिकता की परिधि में आ जाते हैं। उनकी पूर्णता ही उनकी वैज्ञानिकता है। प्रकृति और विकार के सन्दर्भ में कहा जाता है कि प्राणि-संसार में मृत्यु ही प्रकृति है और जीवन विकार है। इस कथन की सार्थकता वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक है। लौकिक दृष्टि से विकार 'जीवन' की प्रकृति आरोग्य है और आरोग्य का आधार शरीर है। शरीर का विनाश अवश्यंभावी है। अत: उसका अन्तिम परिणाम मृत्यु है। निष्कर्ष-रूपेग दृष्टि की भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य केवल एक ही रहता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य-साधन, शरीर-रक्षा एवं आरोग्य-लाभ के समन्वित लक्ष्य हेतु जैन धर्म एवं आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पारस्परिक दूरी होते हुए भी आंशिकरूपेण ही मही, बहुत कुछ निकटता एवं पारस्परिक एकता अवश्य है। व्यावहारिक जीवन में प्रयुक्त किये जाने वाले सामान्य नियम कितने उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए हितकारी होते हैं, यह उनको आचरित करने के बाद भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है। एक जैन गृहस्थ के यहाँ साधारणतः इसका तो ध्यान रखा ही जाता है कि वह जल का उपयोग छानकर करे, सूर्यास्त के पश्चात् भोजन न करे, यथासम्भव गड़न्त वस्तुओं (आलू, अरबी, आदि) का उपयोग न करे, मद्यपान, धूम्रपान आदि व्यसनों का सेवन न करे, जो वस्तुएं दूषित या मलिन हों और जिसमें जन्तु आदि उत्पन्न हो गए हों उनका सेवन न करे इत्यादि । धार्मिक दृष्टि से विरोध की भावना से प्रेरित अथवा स्वयं को अत्यधिक आधुनिक और प्रगतिशील कहनेवाले व्यक्ति भले ही जैन धर्म के उपर्युक्त नियमों को रूढ़िवादी, धर्मान्धता, थोथे एवं निरुपयोगी कहें किन्तु स्वास्थ्य के लिए उनकी उपयोगिता को वैज्ञानिक आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। जो नियम जीवन को सात्त्विकता की ओर ले जाकर जीवन ऊंचा उठाने वाले हों. शरीर की रक्षा और स्वास्थ्य का सम्पादन करने वाले हों, वे नियम केवल इसी आधार पर अवहेलना किये जाने योग्य नहीं हैं कि धार्मिक या सात्त्विक दृष्टि से भी उनका महत्त्व है। स्वास्थ्य विज्ञान का ऐसा कौन-सा ग्रन्थ है अथवा संसार की प्रचलित चिकित्सा प्रणालियों में ऐसी कौन-सी प्रणाली है जो शुद्ध जल के सेवन का निषेध करती है। मद्यपान या धूम्रपान के सेवन का उल्लेख किस चिकित्साशास्त्र में किया गया है ? अशुद्ध और अशुचि भोजन का निषेध कहाँ नहीं किया गया? इस प्रकार उपर्युक्त समस्त नियम एवं सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के अन्य सिद्धान्त भी केवल सैद्धान्तिक या शास्त्रीय नहीं हैं, अपितु पूर्णत: व्यावहारिक एवं नित्योपयोगी हैं। आधुनिक विज्ञान के प्रत्यक्ष परीक्षणों द्वारा यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जल में अनेक सूक्ष्म जीन एवं अनेक अशुद्धियाँ होती हैं । अत: जल को शुद्ध करने के पश्चात् ही उसका उपयोग करना चाहिए । जल की कुछ भौतिक अशुद्धियाँ तो वस्त्र से छानने के बाद दूर हो जाती हैं, कुछ जीव भी इस प्रक्रिया द्वारा जल से पृथक् किये जा सकते हैं । अत: काफी अंशों में जल की अशुद्धि छानने मात्र से दूर हो जाती है और कुछ समय के लिए जल शुद्ध हो जाता है। किन्तु जल की शुद्धि वस्तुत: जल को उबालने से होती है। छने हुए जल को अग्नि पर उबालने से जलगत सभी प्रकार की अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं और जल पूर्ण शुद्ध होकर निर्मल बन जाता है। जैन धर्म मानव को जल सम्बन्धी समस्त दोषों से बचाने और शरीर को नीरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध, ताजे, छने हुए और यथासम्भव उबाल कर ठंडा किये हुए जल के सेवन का निर्देश देता है। क्या इस निर्देश और नियम की व्यावहारिकता अथवा उप- . योगिता को अस्वीकार किया जा सकता है ? गृहस्थ के व्यावहारिक जीवन को उन्नत बनाने हेतु तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध, ताजे और निर्दोष भोजन की उपयोगिता स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है। मानव-जीवन एवं मानव-शरीर को -0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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