SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान DIDIC १८१ कारण है । किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इस प्रकार के अनुसन्धान में सफल नहीं हुए हैं कि शरीर को जीवन-शक्ति प्रदान करने वाले वे विशिष्ट घटक या द्रव्य कौन-कौन से हैं? उनका दावा है कि एक न एक दिन वे उसे खोज निकालने में समर्थ होंगे और इस प्रकार वे मानव-मृत्यु पर सदा सर्वदा के लिए विजय प्राप्त कर सकेंगे। विज्ञान द्वारा प्रतिपादित भौतिक अनुसन्धान सम्भवतः युग-युगों तक प्रयत्नशील रहेगा और सफलता की एक-एक सीढ़ी पार करता हुआ इस दिशा में आगे बढ़ता रहेगा। सफलता की चरम परिणति सम्भवतः उसके समूल विनाश में हो। क्योंकि अनश्वरता की गोद में पले हुए भौतिकवाद की चरम परिणति उसके विनाश में ही है. यह सृष्टि का नियम है। Jain Education International SHOHDHDIO जैन दर्शन का महत्व आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से है चिकित्सा की दृष्टि से उसका कोई महत्त्व नहीं है और न ही जैन दर्शन में चिकित्सा के कोई निर्देशक सिद्धान्त निरूपित हैं । किन्तु चिकित्सा का सम्बन्ध मानव स्वास्थ्य से है और स्वास्थ्य की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं। स्वास्थ्योपयोगी जैन दर्शन के वे सिद्धान्त यद्यपि भले ही स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्णित न किए गए हों, किन्तु मानव मात्र के लिए मानव शरीर की दोषों से रक्षा के निमित्त आध्यात्मिक शुद्धि हेतु प्रतिपादित वे नियम निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं। आध्यात्मिक शुद्धि एवं आत्म-कल्याण की भावना से अभिभूत मनुष्य के लिए भले ही उसके शरीर और उसके शारीरिक स्वास्थ्य का कोई महत्व न हो किन्तु एक गृहस्थ एवं श्रावक को तो शरीर की रक्षा का उपाय करना ही पड़ता है। क्योंकि जिस प्रकार अन्यान्य दोषों से आत्मा की रक्षा करना उसका परम कर्त्तव्य है उसी प्रकार रोगों से शरीर की रक्षा करना भी उसका परम कर्तव्य है । शरीर की रक्षा के बिना अथवा स्वस्थ शरीर के बिना धर्म-साधना सम्भव नहीं है । धर्म का अभिप्राय मानव जीवन की निष्क्रियता भी नहीं है कि धर्म के नाम पर मनुष्य स्वयं को समस्त लौकिक कर्मों से विरत कर ले, अपितु नैतिक आचरण की शुद्धता एवं संयमपूर्ण जीवन ही वास्तविक धर्म है। जीवन की उपयोगिता शरीर के बिना नहीं है। अतः व्यावहारिक जीवन में शरीर की रक्षा करना तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य रक्षण हेतु सदैव सजग रहना मानव का परम कर्त्तव्य है । चारों ही पुरुषार्थ की सिद्धि शरीर के ही माध्यम से होती है और शरीर का स्वास्थ्य ही इनका मूल आधार है । आचार्यों के शब्दों में धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । यह महत्वपूर्ण तथ्य जो आचायों की गहन दृष्टि का परिणाम है, लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से उपयोगी एवं सार्थक है । अतः अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हेतु सतत प्रयत्नशील रहना हमारा नैतिक उत्तरदायित्व हो जाता है । शरीर के प्रति मोह नहीं रखना आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इसका यह भी अभिप्राय नहीं है कि शरीर की पूर्ण उपेक्षा की जाय। जान बुझकर शरीर की उपेक्षा करना एक प्रकार का आत्मघात है और आत्मघात को शास्त्रों में सबसे बड़ा दोष माना गया है। अतः धर्म-साधना हेतु आहार आदि के द्वारा शरीर का साधन करना तथा अहित विषयों से उसकी रक्षा करना और विकार एवं रोगों से उसे बचाना आवश्यक है । एकान्तत: शरीर की उपेक्षा करने का उल्लेख किसी शास्त्र में नहीं है। जैन धर्म में भी आत्म-साधना के समक्ष शरीर को यद्यपि नगण्य माना गया है, किन्तु पूर्णतः उसकी उपेक्षा का निर्देश नहीं किया गया है । अतः यावत्काल शरीर की आयु है तावत्काल उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर यह ध्यान रखने योग्य है कि शरीर को स्वस्थ रखना और उसे रोगों से बचाना एक भिन्न बात है और शरीर से मोह रखते हुए उसके माध्यम से भौतिक सुखों का उपभोग करना एक भिन्न बात है। जैन धर्म शरीर को भौतिक वस्तुओं से विरत रखने का निर्देश तो देता है, किन्तु स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सात्त्विक उपायों के सेवन का निषेध नहीं करता है । For Private & Personal Use Only मानव शरीर के स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से तथा अहित विषयों में शरीर की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जैन धर्म ने मनुष्य के दैनिक आचरण तथा उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जो शारीरिक व मानसिक दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही आत्मशुद्धि आध्यात्मिक विकास एवं सात्विक जीवन निर्वाह के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। जैन धर्म में प्रतिपादित सिद्धान्त जहाँ मनुष्य के आध्यात्मिक www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy