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________________ .१८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ताकि रोगों से मुक्त होकर शरीर भौतिक सुखों का उपभोग कर सके । रोग की चिकित्सा द्वारा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान शारीरिक स्वस्थता तो प्रदान करता है, किन्तु शारीरिक आभ्यन्तरिक शुद्धि तथा मानसिक स्वस्थता के लिए उसके पास कोई साधन नहीं है। इसका कारण सम्भवतः मुख्य रूप से यह हो सकता है कि मन का प्रत्यक्ष न होने से अथवा मन की स्थिति के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों का भिन्न दृष्टिकोण होने से उन्होंने इस विषय में दूसरे ढंग से विचार किया है। अभिप्राय यह है कि आधुनिक विज्ञान मूलतः प्रत्यक्षवादी होने के कारण उसने इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध किये जाने वाले विषयों के अनुसन्धान में ही अपने समस्त साधनों को केन्द्रित किया है। आधुनिक विज्ञान के समस्त साधन भौतिक होने के कारण वे केवल भौतिक वस्तुओं से अनुसन्धान में ही समर्थ हैं, अन्य विषयों के अनुसन्धान में नहीं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समस्त साधन चाहे वे परीक्षण के लिए प्रयुक्त किये जाते हों अथवा चिकित्सा के लिए, पूर्णतः भौतिक हैं। वे साधन, केवल वहीं तक सक्षम हैं जहाँ तक उन्हें विषय का प्रत्यक्ष है, उससे आगे या उसके अतिरिक्त उसकी गति नहीं है । इसी प्रकार वर्तमान बीसवीं शताब्दी में आधुनिक विज्ञान ने महत्त्वपूर्ण साधनों का आविष्कार कर उनके द्वारा रोग निदान के सम्बन्ध में गूढतम विषयों की जानकारी प्राप्त करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। चिकित्सा विषयक अनेक उपकरणों द्वारा कष्टसाध्य व्याधियों को निर्मूल करने तथा रोग समूह पर विजय प्राप्त करने में अद्वितीय सफलता अर्जित की है, तथापि उसको सम्पूर्ण सफलता और श्रेय एक ऐसी परिधि में सीमित है जो केवल इहलौकिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समर्थ है। चिकित्सा का सामान्य अभिप्राय होता है रोगापनयन । चिकित्सा द्वारा रोग का निवारण होने पर शरीर स्वस्थ होता है और शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ मनुष्य भोगोपभोग-योग्य विषयों का आनन्द प्राप्त करता है। चिकित्सा सामान्यत: दो प्रकार की होती है--एक मुख द्वारा औषधि सेवन अर्थात् आभ्यन्तरिक प्रयोग और दूसरी बाह्य क्रियाविधि अर्थात् विविध उपकरणों या साधनों द्वारा शल्य क्रिया करके अवयव विशेषगत विकृति को दूर करना । ये दोनों ही विधियाँ रोग का शमन या व्याधि को निर्मूल करने में समर्थ हैं। किन्तु इनके द्वारा मानसिक शुद्धि या मानसिक विकारोपशम किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। आधुनिक चिकित्सा द्वारा यद्यपि मानसिक विकृति और उसकी चिकित्सा के सम्बन्ध में भी प्रथक् से अनुशीलन, चिन्तन और मनन हुआ है, किन्तु दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण उसने जिस वस्तु को मन की संज्ञा दी है वह भारतीय दर्शनशास्त्र एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित मन से सर्वथा भिन्न वस्तु है । अतः आधुनिक चिकित्सा विज्ञानसम्मत मानवशास्त्र और जैन दर्शन में प्रतिपादित मानवशास्त्र में मौलिक अन्तर होने से जैन दर्शन उसे मानसिक चिकित्सा विज्ञान स्वीकार नहीं कर सकता। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का मुख्य प्रतिपाद्य विषय भौतिकवाद से प्रेरित होने के कारण उसका अपना कोई स्वतन्त्र मौलिक दर्शन नहीं है । यही कारण है कि दार्शनिक क्षेत्र में उसकी गतिविधि का कोई समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया । आधुनिक विद्वानों के अनुसार यह तर्क प्रस्तुत किया जाता रहा है कि पाश्चात्य दर्शन की चिन्तनधारा का पर्याप्त प्रभाव आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर पड़ा है और उसने उसी परिप्रेक्ष्य में अपने सिद्धान्तों का निर्धारण कर एक अजीब दिशा की ओर अपने लक्ष्य बढ़ाए जो अब भी नित नवीन अन्वेषणों के साथ सतत रूप से आगे बढ़ते जा रहे हैं और अपनी नूतन उपलब्धियों के माध्यम से लोक-कल्याण में संलग्न हैं। वस्तुतः यह पूर्ण सत्य है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का स्वतन्त्र मौलिक दर्शन न होते हुए भी वह पाश्चात्य दर्शन से न केवल प्रभावित है अपितु अनुप्राणित है। इसका कारण सम्भवत: यही है कि दोनों का उद्भव-स्थल एक ही है और दोनों में विचारसाम्य की स्थिति है । इस आधार पर अथवा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का अनुशीलन करने पर यह तो स्पष्ट हो जाता है कि वह मनुष्य को शारीरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व देता है, मानसिक दृष्टि से कम और आत्मा या आध्यात्मिक दृष्टि से बिल्कुल नहीं । शारीरिक दृष्टि से मनुष्य का महत्त्व यद्यपि . अस्थायी है और शरीर का विनाश हो जाने पर उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता । किन्तु यावत् काल शरीर विद्यमान रहता है तब तक वही महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त शरीर के जीवन के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि शरीर में कुछ विशिष्ट द्रव्यों का संयोग ही शरीर को जीवित रखकर उसे जीवन प्रदान करता है और उन विशिष्ट द्रव्यों का विघटन शारीरिक जीवन के अन्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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