SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ..... room e ................................................... बारे में मुझे चिन्ता नहीं करनी पड़ती।" इन वचनों में उत्तरदायित्व के प्रति उनकी निष्ठा एवं अपने आश्रित के प्रति वात्सल्य की पूर्ण झलक है। ६. महासती वानकंवरजी--आपका जन्म वि०सं० १६३० में श्री डूंगरगढ़ में हुआ। दीक्षा वि०सं० १९४४ में बीदासर में हुई । प्रमुखा-पद वि०सं० १९८१ को चूरू में प्राप्त किया। अहिंसा और अभय एकार्थक है । जहाँ अभय है वहाँ अहिंसा के भाव फूलते-फलते हैं । महासती कानकुमारीजी का जीवन इन दोनों का समवाय था। उनमें यदि नारी की सुकुमारता थी तो साथ-साथ पौरुष का कठोर अनुबन्ध । एक बार बिहार में-एक छोटे से गांव में रुकना पड़ा । रात्रि में वहाँ चोर आये, बाहर सोये कासीद को रस्सी से बाँध दिया और अन्दर घुसे । महासती कानकंवरजी ने सब साध्वियों को जगाकर महामन्त्र का जाप करना शुरू कर दिया। चोर बोले तुम्हारे पास जो कुछ है, वह हमें दे दो । महासती ने पन्ने निकालते हुए कहा- इनमें अमूल्य रत्न भरे हैं । और संगीत की थिरकती हुई स्वर लहरी उनके कानों में गूंजने लगी। उसमें बहुत सुन्दर भाव थे। चोरों का मन बदल गया और अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगते हुए चले गये। कला जीवन का उदात्त पक्ष है । जो जीने की कला में निपुण है, वह सब कलाओं में निपुण है। आपका जीवन कला की स्फुट अभिव्यक्ति था। जीवन कला के साथ-साथ अन्यान्य कलात्मक वस्तुओं के निर्माण का शिक्षण देना भी आप अपना कर्त्तव्य समझती थीं। अपनी सन्निधि में रहने वाली साध्वियों को सभी कलाएँ सिखातीं। आप कला में बेजोड़ थीं । आपके अनुशासन में "वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि" यह उक्ति चरितार्थ होती थी। स्वाध्याय की विस्मृति न हो जाए, यह स्वाध्याय का गौण पक्ष है। मुख्य पक्ष है तत्सम आनन्दानुभूति । महासती कानकंवरजी स्वाध्याय में लीन रहतीं। ६ आगम, अनेक भजन, स्वतन, थोकड़े कण्ठस्य थे। रात में घण्टों पुनरावर्तन करतीं। दिन में आगम-वाचन करती। वर्ष भर में ३२ आगमों का वाचन हो जाता। आपको साध्वी समाज का अटूट विश्वास प्राप्त था। इसका हेतु था अप्रतिम और निश्छल वात्सल्य । दूसरों को समाधि पहुँचाने में अपना स्वार्थ त्याग करने हेतु सबसे आगे थीं। . ___व्याख्यान शैली प्रभावोत्पादक थी। बड़े-बड़े साधु आपके सामने व्याख्यान देने में सकुचाते थे। आपके प्रति साधुओं के हृदय में बहुमान था। आपके बारे में आचार्यश्री तुलसी ने 'काल यशोविलास' में लिखा है संचालन शैली सुघड़ ज्ञान ध्यान गलतान । कानकंवर गण में लह्यो गुरु कृपा सम्मान ॥ निमल नीति युत पालियो चरण रमण सुविलास । बाल्यकाल ब्रह्मचारिणी वर्षे गुण पचास ।। श्रुति स्वाध्याय विलासिनी हसिनी-कर्मकठोर । विकथावाद विनासिनी आश्वासिनी मन मोर ।। अति सुखपूर्वक समालियो निजसंयम जीतव्य ।। वाह ! वाह सती महासती अवसर लह्यो ! अलभ्य ।। वि०सं० १६६३ भाद्रपक्ष कृष्णा ५ को अत्यन्त समाधिस्थ अवस्था में राजलदेसर में आपका स्वर्गवास हआ। ७. महासती झमकूजी-आपका जन्म-स्थान रतन नगर था । गर्भावस्था में माता को लक्ष्मी का स्वप्न दिखायी दिया । स्वप्न में ही माँ ने पूछ लिया-यह क्या ? उत्तर मिला-यह कन्या तेरे कुल की शृंगार बनेगी। अतुल स्नेह और वात्सल्य से पालन-पोषण हुआ। अल्पवय में पाणिग्रहण हो गया। ससुराल में जन-धन की वृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy