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________________ तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ ८१ ........................................... ... ... .. . ... .. .. .. ४. महासती नवलांजी-आपका जन्म सं० १८८५ में हुआ । बाल्यावस्था में ही विवाह हो गया । कुछ वर्ष पश्चात् ही पति का वियोग सहन करना पड़ा । तृतीय आचार्य श्री ऋषिराय जी के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। आपने दीक्षा के दिन अपना केश लुचन स्वयं अपने हाथों से किया। विवेक, नम्रता आदि गुणों से योग्य समझकर आचार्यश्री ने उनको बहुत सम्मान दिया, उसका उदाहरण है, उनको उसी दिन ‘साझ' की वन्दना करवाई गई। आपने बत्तीस आगमों का वाचन किया। तत्त्व को गहराई से पकड़तीं और निपुणतापूर्वक अन्य जनों को समझातीं । कण्ठ में माधुर्य और गाने की कला सुन्दर थी। पुस्तकें और सिंघाड़े की साध्वियों को समर्पित करने की पहल आपने की । जय गणि के शासन काल में १३ वर्ष तक गुरुकुल-वास का सुन्दर अवसर आपको प्राप्त हुआ। १२ वर्ष ६ माह तक अग्रणी रूप में बहिविहार करते हुए जन-जीवन को जागृत किया । आचार्यश्री रायचन्द जी, आचार्यश्री जीतमलजी, आचार्यश्री मघराजजी, आचार्यश्री माणकचन्दजी, आचार्यश्री डालगणि इन पाँच आचार्यों की आज्ञा और इंगित की आराधना करती हुई आचार्यों की करुणा-दृष्टि की पात्र बनीं । ज्येष्ठा और कनिष्ठा सभी' साध्वियों को आप से अनहद वत्सलता मिलती। ३ वर्ष तक बीदासर में आपका स्थिरवास हुआ। आपाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन नव प्रहर के अनशनपूर्वक ६६ वर्ष की अवस्था में समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया। ५. महासती जेठांजी-आपका जन्म वि० सं० १६०१ में हुआ। दीक्षा वि० सं० १६१६ में चूरू में हुई। प्रमुखा पद वि० सं० १९५५ में लाडन में प्राप्त हुआ। आपका स्वर्गवास वि० सं० १६८१ में राजलदेसर में हुआ। व्यक्तित्व स्वयं एक ज्योति है । वह स्वयं प्रकाशशील है। साध्वीश्री जेठांजी व्यक्तित्व की धनी थीं। शरीर सम्पदा से आपकी आन्तरिक सम्पदा कहीं अधिक महान् थी। यही कारण था कि आपका जीवन उत्तरोत्तर आदर्श बनता गया और उसने आपको तपस्या को अपने में मूर्तकर शरीर के प्रति अभयत्व की भावना का पाठ पढ़ाया। आपके दो दशक गृहस्थवास में बीते । इस अल्प अवधि में अनेक सुख-दुःखात्मक अनुभूतियाँ आपको हुई । आपका कुटुम्ब समृद्धिशाली था। आपका विवाह हुआ परन्तु १६वें वर्ष में प्रवेश पाते ही पति का वियोग हो गया और आपका सर्वस्व लुट गया । सब कुछ खोकर भी आपने वह पाया जो अमर आनन्द देने वाला था। दुःख वैराग्य की सुखमय अनुभूति में बदल गया। जयाचार्य के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार हुआ। सरदार सती की सन्निधि में शिक्षण चला। रुचि एकनिष्ठ थी । महासती सरदारांजी की बयावृत्य और शासन के कतिपय कार्यों का दायित्व स्वयं ले लिया । आपने सेवा व्रत को अपने जीवन का अंग बना लिया । ग्लान साधु-साध्वियों के लिए औषधि का सुयोग मिलाने का कार्य अपने पूर्ण तत्परता से निभाया । नवदीक्षिता साध्वियों को आपकी देख-रेख में रखा जाता । आप उन्हें सुसंस्कारों से संस्कारित बनातीं । कष्टसहिष्णुता का मर्म समझातीं। तेरापंथ के सप्तमाचार्य श्री डालगणि ने आपको प्रमुखा पद पर स्थापित किया। आपकी सेवाओं के विषय में डालगणि कहते - "जेठांजी की सेवाएँ अनुकरणीय हैं । इन्होंने आचार्यों तथा साधु-साध्वियों की बहुत सेवाएँ की । इनसे सेवा करना सीखो।" साध्वी श्री जेठांजी ने १७ और २ को छोड़कर २२ तक चौविहार तपस्या की। तेरापंथ में यह चौविहार तपस्या का उत्कृष्ट उदाहरण है। सहज सौन्दर्य, कर्त्तव्य-निष्ठा, गुरु-भक्ति सहज ही जन जन को आकृष्ट कर लेती थी। कालगणि फरमाया करते-'जेठांजी की देखरेख में कितनी भी साध्वियों को रखा जाए, उनकी व्यवस्था के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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