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________________ होने से आपको लक्ष्मी के रूप में स्वीकार किया गया। योग्यता के कारण कुछ दायित्र तत्काल सौंप दिये । अचानक पति का वियोग हो गया। पुत्री के वैधव्य की बात सुन पिता तीन दिन मूच्छित रहे । स्वप्न में आवाज आयी - यह अप्रत्याशित दुःख इसके जीवन को अमरत्व प्रदान करेगा । दीक्षा के समय आपके जेठ ने कहा - 'जितना हो रहा है। मेरे घर की रखवाली अब कौन करेगा ?" परिचायक है। तेरापंथ को अग्रणी साध्वियां एक बार स्वप्न में महासती ने आम्र से लदे हुए वृक्ष को देखा । मन में दीक्षा का संकल्प किया। माता-पिता का स्नेह और सास-ससुर का अनुराग उन्हें बाँध नहीं सका । दीक्षा से पूर्व पतिगृह की रखवाली का भार आप पर था । ८३ आपके मन में कला के प्रति सहज आकर्षण था। मिनट में चोलपट्टे को सीना, एक दिन में रजोहरण की जीवन में रहते हुए भी आपने अनेक साध्वियों को सूक्ष्म कला सिखायी। दुःख मेरे कनिष्ठ भ्राता की मृत्यु पर नहीं हुआ उतना आज उमार दायित्व के प्रति इनकी गहरी निष्ठा और कुशलता के हर कार्य में स्फूर्ति और विवेक सदा बना रहता था । १५ २५ कलिकाओं को गूंथना स्फूर्ति के परिचायक हैं। गृहस्थ आप स्वाध्याय रसिक थीं। शैक्ष, ग्लान, वृद्ध की परिचर्या में विशेष आनन्दानुभूति होती थी। जब कभी शल्यचिकित्सा का प्रसंग आता तो अपने हाथों से उस कार्य को सम्पन्न कर देतीं। हाथ था हल्का और साथ-साथ कार्यकुशलता । एक बार कालूगणि चातुर्मास के लिए चूरू पधार रहे थे । नगर प्रवेश का मुहूर्त ६ ॥ वजे था । दूरी थी ६ मील की । आचार्यश्री इतने शीघ्र किसी हालत में वहाँ पहुँच नहीं सकते थे । अतः प्रस्थाना रूप आपको भेजा । आप एक घण्टे में ६ मील पहुँच गयीं। स्मृति और पहचान अविकल थी । वर्षों बाद भी दर्शनार्थी की वन्दना अँधेरे में नामोच्चारणपूर्वक स्वीकार करतीं । दर्शनार्थी गद्गद् हो जाते और अपना सौभाग्य समझते । हर्ष से विह्वल और शोक से उद्विग्न होने वाले अनेक हैं। दोनों अवस्थाओं में समरस रहने वाले विरले मिलेंगे। कालूगणि का स्वर्गवास हुआ। सर्वत्र शोक का वातावरण था । ऐसी विकट स्थिति में आपने धैर्य का परिचय दिया । सब में साहस का मन्त्र फूंका। वह शोक अभिनव आचार्य पद प्राप्त तुलसी गणि के अभिनन्दन में हर्ष बनकर उपस्थित हुआ । तेरापंथ शासन की ३७ वर्षों तक सेवाएँ को आचायों का विश्वास साधु-साध्वियों का अनुराग, धावक समुदाय की अविकल भक्ति को स्वीकार करती हुई साधना की आनन्द मुक्ताओं को समेटती विखेरती वि०स० २००२ में पूर्ण समाधि में इस संसार से चल बसी आज उनकी केवल स्मृति रह गयी है जो अनेक कार्यों में प्रतिबिम्बित होकर विस्मृति को स्मृति बना देती है । Jain Education International ८. महासती लाडांजी - आपका जन्म वि० सं० १९६० में लाडनू में हुआ तथा दीक्षा भी लाडनू में ही वि० सं० १९८२ में हुई । साध्वी प्रमुख पद प्राप्ति वि० सं० २००२ में हुई। विवाह के अनुरूप आयु होने पर विवाह किया गया किन्तु अल्पसमय पश्चात् ही पति वियोग सहना पड़ा। वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हुआ। आपकी दीक्षा अष्टमाचार्यश्री कारण के करकमलों से मुनि तुलसी, जो बाद में तेरापंथ के नवम आचार्य बने के साथ हुई किसने ऐसा चिन्तन किया था कि इस शुभ मुहूर्त में दीक्षित होने वाले ये दोनों साधक शासन के संचालक बनेंगे। शासन का सौभाग्य था । 7 कालूगणि के स्वर्गारोहण के पश्चात् तुलसी गणि पदासीन हुए। महासती लाडांजी को गुरुकुलवास मिला । महासती झमकूजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनका कार्यभार महासती लाडांजी सौंपा गया । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी का जीवन शान्ति का जीवन है। आचार्यजये के कुशल नेतृत्व में साधु-साध्वियों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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