SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1026
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्य ................................... मुख्यतः रीति, शृंगार और कला का काल था। उस युग के काव्य में विलासिता एवं ऐहिक सुख-भोग की प्रवृत्ति बढ़ चली थी, किन्तु हमारे काव्यों में भिन्न प्रवृत्ति-निवृत्तिमूलकता का ही अतिरेक दिखाई देता है। इस की दृष्टि से इनमें शान्त रस शीर्ष पर है। जैन कवि बनारसीदास (वि०सं० १६४३-१७००) ने 'नवमो शान्त रसन को नायक' कहकर शान्त को रसों का नायक स्वीकार किया था । अन्य पूर्ववर्ती कवियों की चेतना ने भी शान्त रस की धारा में खूब अवगाहन किया है । वास्तव में हमारे युग के कवि भी आध्यात्मिक धारा के पोषक थे और शृंगार के अन्तर्गत मांसल प्रेम के विरोधी । उनकी रचना में शृगार की लहरें शान्त के प्रवाह में विलीन हो गई हैं । रस की यह परिणति रीति के झकोरों से मुक्त एक विशेष दशा की सूचक है। इन प्रबन्धकाव्यों में भक्ति का, धर्म एवं दर्शन का स्वर भी प्रबल है और उनमें स्थल-स्थल पर उनके प्रणेताओं की सन्त-प्रवृत्ति का उन्मेष झलकता है । कहना न होगा कि इन कृतियों में या तो तिरसठशलाका पुरुषों का यशोगान है या आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए रूपक अथवा प्रतीक शैली में दार्शनिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों का उदघाटन है, या अन्यान्य चरित्रों के परिप्रेक्ष्य में उदात्त मूल्यों एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा है। वस्तुतः लक्ष्य के विचार से इन काव्यों की वैराग्योन्मुख प्रवृत्ति का मूल उद्देश्य तत्कालीन अव्यवस्था से क्षत - विक्षत सामन्तवाद के भग्नावशेष पर खड़े त्रस्त और पीड़ित मानव को स्फूति और उत्साह प्रदान करके दिशान्तर में प्रेरित करता है, जीवन-पथ में आच्छादित अन्धकार और निराशा को दूर कर उसमें आशा और आलोक भरना तथा विलास-जर्जर मानव में नैतिक बल का संचार करना है। इनमें स्थल-स्थल पर जो भक्ति की अनबरत गंगा बह रही है, वह भी इस भावना के साथ कि मानव अपने पापों का प्रक्षालन कर ले, अपनी आत्मा के कालुष्य को धो डाले और इनमें जो आदर्श चरित्रों का उत्कर्ष दिखलाया गया है, वह भी इसलिए कि उन जैसे गुणों को हृदय में उतार ले। इस प्रकार विवेच्य प्रबन्धकाव्यों में धर्म के दोनों पक्षों (आचार एवं विचार) पर प्रकाश डालते हुए मानव को यह बोध कराया गया है कि व्यक्ति और समाज का मंगल धर्मादों के परिपालन एवं चारित्रिक पवित्रता के आधार पर ही संभव है। प्रायः समस्त प्रबन्धों में संघर्षात्मक परिस्थितियों का नियोजन तथा अन्त में आत्म-स्वातन्त्र्य की पुकार है। उनके मध्य में स्थल-स्थल पर अनेक लोकादर्शों की प्रतिष्ठा है। लोक-मंगल की भावना उनमें स्थल-स्थल पर उभरी है। वहाँ पाप पर पुण्य, अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय का उद्घोष है। उनमें ऐसे प्रसंग आये हैं जहाँ हिंसा, क्रोध, वैर, विषयासक्ति, परिग्रह, लोभ, कुशील, दुराचार आदि में लिप्त मानव को एक या अनेक पर्यायों में घोरतम कष्ट सहते हुए बतलाया गया है और अन्ततः अहिंसा, अक्रोध, क्षमा, त्याग, उदारता, अपरिग्रह, शील, संयम, चारित्र आदि की श्रेयता, पवित्रता और महत्ता सिद्ध कर इहलोक और परलोक के साफल्य का उद्घाटन किया गया है। उनका लक्ष्य राग नहीं विराग है, भौतिक प्रेम नहीं आध्यात्मिक प्रेम है, भोग नहीं योग है, तप है, मोक्ष है। संक्षेप में, चतुर्वर्ग फलों में से धर्म और मोक्ष की प्राप्ति है, अर्थ और काम उपर्युक्त दोनों फलों की उपलब्धि के साधन मात्र हैं। निष्कर्ष यह है कि विद्वानों द्वारा आलोच्य प्रबन्ध-काव्यों का प्रबन्धकाव्य-परम्परा में चाहे जो स्थान निर्धारित किया जाये, किन्तु इतना अवश्य है कि उनमें चिन्तन की, आचारगत पवित्रता की, सामाजिक मंगल एवं आत्मोत्थान की व्यापक भूमिका समाविष्ट है । सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक तीनों ही दृष्टियों से इन काव्यों का अविस्मरणीय महत्त्व है। १. देखिए-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy