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________________ डा. गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : ११५ पाकर अपभ्रश के रूप में विकसित हुई, ऐसा माना जा सकता है. इन तथ्यों पर गम्भीरता से विचार करने पर एक प्रश्न उठता है, कि असाधु शब्दों के लिये प्रयुक्त किया जानेवाला 'अपभ्रश' विशेषण संस्कृत वैयाकरणों-उच्चवंशी पंडितों द्वारा आभीरी को 'महाशूद्रों' की भाषा मानकर-तिरस्कार व घृणा से 'अपभ्रष्ट' अथवा 'अपभ्रंश' संज्ञा के रूप में कहीं थोप तो नहीं दिया गया है, जो कि फिर प्रचलित हो गया. जैसे हिन्दी की स्वच्छंदवादी-रोमांटिक कविता के लिये दिया गया 'छायावाद' नाम. कुछ विदेशी इतिहासकारों ने, और उनके आधार पर अनेक भारतीय विद्वानों ने वैदिक और बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मण-क्षत्रिय के संघर्ष की पृष्ठ-भूमि पर इन आभीर, गुर्जर, हूण आदि नवीन आनेवाली दुर्दान्त और साहसी जातियों को क्षत्रियों के रूप में सम्मान प्राप्त करने का उल्लेख किया है.' ब्राह्मण वर्ग ने अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिये हूण, आभीर गुर्जर, आदि नवागन्तुकों को अपनी छाया में ले लिया था. उनको क्षत्रिय स्वीकार कर लिया और इस अर्थ कुछ यज्ञानुष्ठानों के विधान किये. माउंट आबू के अग्निकुलीय क्षत्रियों का अविर्भाव इसी नये विधान का परिणाम था.२ कारण, कुछ भी रहे हों इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस जाति का प्रसार समस्त उत्तरापथ और मध्यभारत में हो गया और इनके साथ ही अपभ्रंश भाषा को फैलने व विकास पाने का अवसर मिला.. ईसा की दूसरी शताब्दी में आभीरों का प्रसार काठियावाड़ तक था ऐसा अनुमान रुद्रदमन के एक अभिलेख से लगाया जा सकता है. काठियावाड़ में 'सुन्द' नामक स्थान पर रुद्रदमन का एक अभिलेख मिला है, जिसमें उसके एक आभीर सेनापति 'रुद्रभुति' के दान का उल्लेख है. विद्वान् उस अभिलेख को १८१ ई० का मानते हैं. एन्थोवेन ने ईसा की तीसरी शताब्दी के अन्त में काठियावाड़ में आभीरों के आधिपत्य की ओर संकेत करते हुये नासिक अभिलेख (३०० ई०) में निर्देशित आभीर राजा ईश्वरसेन की ओर ध्यान आकर्षित किया है. समुद्रगुप्त के प्रयांग-स्तंभ लेख में (३६० ई०) आभीरों का आधिपत्य गुप्तसाम्राज्य की सीमा पर मालवा, गुजरात, राजस्थान आदि में बताया गया है.५ पुराणों के अनुसार आंध्रभृत्यों के बाद दकन आभीर जाति के ही हाथ आया और छठी शती के बाद हाथ से निकल गया. उस समय ताप्ती से लेकर देवगढ़ तक का प्रदेश इन्हीं के नाम पर विख्यात था. आठवीं शती में जब काठी जाति ने सौराष्ट्र में प्रवेश किया तब भी वहाँ आभीरों का अधिकार था. पन्द्रहवीं शती में खानदेश तक ये लोग फैले हुये थे. आसा अहीर द्वारा आसीर-गढ़ के किले की स्थापना का उल्लेख फरिश्ते ने किया है. कुछ लोग मध्यदेश के मिर्जापुर जिले के आहिरौरा स्थान का सम्बन्ध आभीरों से मानते हैं.८ दण्डी के 'आभीरादिगिर:' में 'आदि' के द्वारा किन जातियों की ओर संकेत है ? यह प्रश्न है. भोज ने सरस्वतीकंठाभरण में लिखा है कि गुर्जर अपनी अपभ्रंश से ही तुष्ट होते हैं. इस आधार पर आभीरों के साथ गुर्जरों का संबंध जोड़ा जाता है. यद्यपि गुर्जरों की बोली गौर्जरी का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में पाया जाता है फिर भी उनके द्वारा अपभ्रश को संरक्षण और मान्यता मिली, इसे निश्चित तौर पर कहा जा सकता है. भण्डारकर और जैक्सन की खोजों से पता चलता है कि छठी शताब्दी ईसवी में गुर्जरों ने गुजरात और भडोंच को जीता. उनकी मुख्य शाखा की राजधानी भीनमाल थी और १. डा० भगवतशरण उपाध्याय : भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण-पृ० १०६. २. वही पृ०६२६. ३. डा० भन्डारकर : इंडियन एंटिक्वेरी-१९११पृ० १६. ४. पंथोवेनः ट्राइब्ज एण्ड कास्ट्स आफ बोम्बे-भाग-१ पृ० २१. ५. विसेंट स्मिथः अरली हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ० २८६. ६. एंथोवेनः ट्राइब्ज़ एंड कास्ट्स आफ बोम्बे-भाग १ पृ० २४. ७. वही-पृ० २४.. ८. हजारो प्रसाद द्विवेदीः हिन्दी साहित्य की भूमिका-पृ० २४. M JainEducion arabrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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