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________________ १०४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसैनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ।। – काव्यालंकार २-१२ इस प्रकार रुद्रट ने अन्य साहित्यिक प्राकृतों के समान ही अपभ्रंश को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, और देशभेद के आधार पर विविधता की स्थापना की है. पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में बताया है कि तत्कालीन राजकुमारियों को संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रश का भी ज्ञान कराया जाता था. इस का अर्थ यह हुआ कि लगभग दसवीं शताब्दी में 'अपभ्रश' भरत की 'विभ्र शब्दावली' से विकसित होकर शिष्टसमुदाय की भाषा बन चली थी. राजशेखर ने अपने ग्रंथ 'काव्यमीमांसा' में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की भांति ही अपभ्रंश का उल्लेख एक काव्यभाषा के रूप में अनेक बार किया है. काव्य-पुरुष की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा है : शब्दार्थी ते शरीरं, संस्कृतं मुख, प्राकृतं बाहुः, जघनमपभ्रंशः, पैशाचं पादी, उरो मिश्रम्. अर्थात् शब्द और अर्थ तेरे शरीर हैं. संस्कृत भाषा मुख है. प्राकृत भाषाएं तेरी भुजाएं हैं. अपभ्रंश भाषा जंघा हैं. पिशाच भाषा चरण है और मिश्र भाषाए वक्षःस्थल हैं. इसी प्रकार राजशेखर ने काव्यविशेषताओं के अनुसार दरबार में कवियों के बैठने के स्थान भी निश्चित किये हैं-उत्तर में संस्कृत-कवि, पूर्व में प्राकृत कवि, पश्चिम में अपभ्रश कवि व दक्षिण में पैशाच कवि आसन ग्रहण करें.३ आगे चलकर राजशेखर ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के क्षेत्र का निर्देश करते हुए सकल मरुभूः, टक्क और भादानक को अपभ्रश या अपभ्रंश-मिश्रित भाषा का प्रयोग करनेवाला क्षेत्र कहा है. एक दूसरे स्थान पर उन्होंने त्रवण और सुराष्ट्र को अपभ्रंश भाषा-भाषी कहा है.५ नमि साधु ने रुद्रट के काव्यलंकार पर टीका करते हुये अपनी वृत्ति में लिखा है। तथा प्राकृतमेवापभ्रंशः स चान्यरुपनागराभीरनाम्यावभेदेन त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्तं भूरिभेद इति. कुतो देशविशेषात्. तस्य च लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम्" ये अपभ्रश को एक प्रकार से प्राकृत ही मानते हैं. अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट तीन प्रकार की अपभ्रंशउपनागर, आभीर, और ग्राम्या का निर्देश करते हुये स्वीकार करते हैं कि 'अपभ्रश के इससे भी अधिक भेद हैं. अपभ्रंश को जानने का सर्वोत्तम साधन लोक ही है.' इससे जान पड़ता है कि इस समय तक अपभ्रंश लोकभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी. भोजराज ने अपने 'सरस्वतीकंठाभरण' में इसे गुर्जर प्रदेश की प्रिय भाषा के रूप में ग्रहीत किया है. १. पुष्पदंत महापुराण-५-१८-६ सक्कउ पारउ पुण अवहंसड वित्तउ उप्पाइउ सपसंसउ. २. राजशेखर : काव्यमीमांसा-वि०रा० भाषा० प्रकाशन, पृ०१४, ३. राजशेखर : काव्यमीमांसा-पृ०१३१-३३. तस्य चोत्तरतः संस्कृताः कवयो निवेशेरन् . पूर्वेण प्राकृताः कवयः ।- परिचमेनापभ्रंशशिनः कवयः-दक्षिणतो भूतभाषायवः । ४. राजशेखरः काव्यमीमांसा पृ० १२४. सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कमालानकाश्च. ५. राजशेखरः काव्यमीमांसा पृ० ८३. सुराष्ट्रवणवा ये पटन्त्यर्पितसोष्टयम् . अपभ्रंशावदंशानि ते संस्कृतवचास्यपि. ६. नमिसाधुः काव्यालंकारवृत्ति-२१२. भोजराजः सरस्वतीकंठाभरण--२-१३. अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गुर्जराः . Im lanEANINNINININववारवNENINANININNINENION
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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