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________________ ८६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय और अधोलोक इन तीन भागों में विभक्त किया है. लोक में जीव नाना योनियों एवं गतियों में निरंतर जन्म-मरण के द्वारा पैदा होते एवं मरते रहते हैं. शुभ कार्यों द्वारा उपाजित महान् पुण्य का भोग करने के लिए यह जीव देवगति में जाता है. वहाँ रोग शोक जरा रहित होकर यथेष्ट इन्द्रियजनित भोगोपभोगों को भोगता है. निकृष्टतम अशुभ कार्यों द्वारा संचित पाप के द्वारा नरकों में भूमिजन्य, असुरजन्य और परम्परजन्य दैहिक एवं मानसिक अनेक प्रकार के दुखों को करोड़ों वर्षों तक भोगता है. कुछ मंद कषाय एवं पाप की अल्पता से पशु-गति के दुखों को भोगता है. पुण्य पाप के मिश्रित उदय में मनुष्य-गति के सुख-दुखों का अनुभव करता है. इनमें देव और नारक अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं. इनकी मृत्यु असमय में बीमारी, विष, शस्त्र, रक्तक्षय आदि बाह्य कारणों से नहीं होती. आयु पूर्ण होने पर ही ये मरते हैं. जब बीमारी और बुढ़ापा देवों में है ही नहीं तब उनके वास्ते चिकित्साशास्त्र की आवश्यकता ही क्या है? नारकियों को इतना तीव्र पाप का उदय होता है कि उन्हें किन्हीं बाह्य वस्तुओं से सुखशांति पहुँचाना संभव ही नहीं. भयंकर प्रवाह वाली नदी पर, जिसके वेग को बड़ी से बड़ी शक्तिवाले यंत्रों से भी न रोका जा सके, बाँध बाँधना श्रम और शक्ति का दुरुपयोग है, इसी प्रकार नारकियों के लिए भी चिकित्साशास्त्र अनुपयोगी है. मनुष्य और तिर्यंचों में भी भोगभूमि में रहने वाले असंख्यात वर्ष की आयुवाले विष कंटक शस्त्रघात जरा रोग आदि उपद्रवों से रहित होते हैं. उनको न बुढ़ापा आता है, न बीमारी होती है. वहां का जीवन इतना सरल, सादा और सात्विक होता है कि वहां परस्पर रागद्वेष ईष्यादि दुर्भाव नहीं होते. इससे कलह या परस्पर शस्त्राघात का उनमें प्रसंग नहीं होता. इसलिये उनकी भी अकालमृत्यु नहीं होती. कर्मभूमियों में भी विशेष पुण्यशाली चरमोत्तमदेहधारी महापुरुषों में रोगादि नहीं होते. इन सब को चिकित्सा की जरूरत नहीं. शेष बचे हम सरीखे मनुष्यों को इसकी जरूरत है. हमारे लिए इस आयुविज्ञान शास्त्र-आयुर्वेद के ज्ञान----का परम महत्त्व है. बहुत प्राचीन काल से कइयों की यह धारणा चली आरही है कि किसी की अकालमृत्यु होती ही नहीं है. समय प्राप्त होने पर बीमारी, विष, शस्त्राघात, वृक्ष से गिरना, रेल, मोटर या हवाई दुर्घटना आदि का मात्र निमित्त मिल जाने से होने वाली मृत्यु को अकालमृत्यु कहना गलत है. किन्तु जैनदर्शन के समर्थ और गंभीर विद्वान् भगवान् भट्टाकलंक ने अपने महान् दार्शनिक ग्रंथ तत्त्वार्थराजवातिक में इस भ्रान्त धारणा का निरसन करते हुए कहा है-जैसे तीव्र हवा के झोंके से दीपक को बचाने के लिए लालटेन का उपयोग न किया जाय या हाथ वगैरह का आवरण न किया जाय तो वह बुझ जाता है. यदि आवरण हो तो बच जाता है, बुझता नहीं है. इसी प्रकार तीव्र सन्निपातादि से ग्रस्त मनुष्य की यदि उपेक्षा की जाय, उचित निदानपूर्वक चिकित्सा न की जाय तो वह मर सकता है. इसके विपरीत यदि आयु शेष है तो उचित चिकित्सा उसे बचा लेगी. इसी मूलभूत विचार से प्राणावाय पूर्व की रचना की गई है. उनका मूलवातिक इस भांति है-'आयुर्वेद प्रणयनान्यथानुपपत्तेः' यदि रक्तक्षयादि से अकाल मौत न मानी जाय तो उससे बचाने के लिए भगवान् तीर्थंकर आयुर्वेद-प्राणावाय पूर्व-की रचना नहीं करते. रचना उन्होंने की है, इसी से सिद्ध है कि अकालमृत्यु से भी प्राणी का मरण होता है और ऐसे मरण को उचित उपाय द्वारा टाला जा सकता है. जब अकालमृत्यु, बीमारियों की यंत्रणा, अकालवार्धक्य आदि मनुष्य के जीवन में सुख स्वास्थ्य के दुश्मन मौजूद हैं तब उनसे बच कर रहने के उपाय बताना आवश्यक है. और इसी आवश्यकता की पूर्ति आयुर्वेद करता है. संसार में धर्म अर्थ काम मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ हैं—प्रत्येक मनुष्य के जीवन के लक्ष्य हैं. इनमें मोक्ष और काम पुरुषार्थ साध्य हैं और धर्म तथा अर्थ पुरुषार्थ उनके साधन हैं. इन पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए शरीर की नीरोगता परम आवश्यक है. कहा है-'धर्मार्थकाममोक्षाणां आरोग्यं मूलमुत्तमम्. आयुर्वेद-अवतार की प्रस्तावना करते दुए दिगम्बराचार्य उग्रादित्य ने अपने "कल्याणकारक" नामक ग्रंथ में इसी तथ्य को इस प्रकार प्रकट किया है-"देवाधिदेव भगवान् आदिनाथ के पास, कैलाशपर्वत पर पहुँच कर भरत चक्रेश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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