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________________ पं. कुन्दनलाल जैन आयुर्वेदाचार्य आयुर्वेद का उद्देश्य : संयमसाधना जैन तीर्थंकरों की वाणी-उपदेश-विषयों के विभागों के अनुसार मोटे-मोटे १२ विभागों में विभक्त की गई है, जिन्हें जैन आगम की परिभाषा में 'द्वादशांग' कहते हैं. इन १२ अंगों में बारहवाँ अंग 'दृष्टिवाद' है. दृष्टिवाद के पांच भेद इस भांति हैं—१ पूर्वगत २ सूत्र ३ प्रथमानुयोग ४ परिकर्म ५ चूलिका. पूर्व १४ हैं. उनमें से १२ वें पूर्व का नाम 'प्राणावाय' पूर्व है. इस पूर्व में लोगों के आभ्यन्तर-मानसिक एवं आध्यात्मिक-स्वास्थ्य एवं बाह्य शारीरिक स्वास्थ्य की यथावत् स्थिति रखने के उपायभूत यम नियम आहार विहार एवं उपयोगी रस रसायनादि का विशद विवेचन है. तथा जनपदध्वंसि, मौसमी, दैविक, भौतिक आधिभौतिक व्याधियों की चिकित्सा तथा उसके नियंत्रण के उपायादि का विस्तृत विचार किया गया है.' यह प्राणावाय पूर्व ही आयुर्वेद का मूल शास्त्र है. यही आयुर्वेद का मूल वेद है. इसी के आधार पर हमारे लोकोपकारी प्रातःस्मरणीय आचार्यों ने अथक श्रमद्वारा अनेकों आयुर्वेदीय ग्रंथों की रचना की है जो हमारे सरस्वतीभण्डारों की शोभा वर्तमान काल में बढ़ा रहे हैं. बहुत थोड़े ग्रंथरत्न ही प्रकाश में आये हैं. उन समस्त ग्रंथरत्नों को संकलित, परिष्कृत कर आधुनिक समय के योग्य टिप्पण आदि से युक्त कर प्रकाशित करने की महती आवश्यकता है. जैन आगम जीव-आत्मा के इह लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण एवं अभ्युदय के मार्ग को बतलाता है. जैन शास्त्रों में जीव की तथा इस विश्व की सत्ता स्वयंसिद्ध अनादिनिधन बतलाई है. इनका उत्पादक रक्षक एवं संहारक किसी व्यक्ति-ईश्वर-आदि को नहीं माना है. संसार की परिवर्तित होने वाली अवस्थाएँ द्रव्यों के स्वयं के स्व-परनिमित्तक परिवर्तन का परिणाम हैं. प्रत्येक द्रव्य की सत्ता पृथक्-पृथक् है. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के स्वभाव में किसी प्रकार का परिवर्तन करने में समर्थ नहीं. प्रत्येक द्रव्य में एक स्वाभाविक परिणमन की शक्ति रहती है. जीव और पुद्गल की उस स्वाभाविक शक्ति के स्वाभाविक और वैभाविक परिणमनरूप दो विभाग हैं. और इन दोनों के कारण दोनों द्रव्यों में स्वभावपरिणमन एवं विभावपरिणमन होता रहता है. इस परिणमन में उपादान एवं निमित्त नाम के दो कारणहेतु बतलाये गये हैं. पदार्थ में स्वयं तत्-तत्कार्य रूप होने की योग्यता का नाम उपादान है. अन्य द्रव्य की उस कार्य की पैदाइश के समय उपस्थिति का नाम निमित्त है. वह सबल एवं उदासीन रूप दो प्रकार का होता है. अतः जब कोई द्रव्य परिणमन को प्राप्त होता है तब उसकी स्वतः की परिणमन कराने वाली (स्वतः में निहित) शक्ति के अनुसार ही परिणमन होगा-उसी को उपादान शक्ति कहते हैं. शक्ति बाह्य सबल निमित्त को पाकर नियत परिणमन-कार्य का उत्पादन-करा देती है. इसी बाह्य निमित्त की सबलता एवं उपयोगिता को हृदयंगम कर आचार्य ने लोकहित की भावना से प्रेरित होकर "आयुर्वेद" की रचना में अपना योगदान दिया. यह लोक-संसार-जीव का निवासस्थान है. इसे ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक १. कायचिकित्साधष्टाङ्ग आयुर्वेदः भूतिकर्मजांगुलिप्रकमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत् प्राणाचायम् । -तत्त्वार्थराजवार्तिक अ० १ सू० २०. २. जैनागम में १ जीव २ पुद्गल ३ धर्म ४ अधर्म ५ आकाश ६ काल नाम के ६ द्रव्य माने हैं. ENABRARNE View Jain Education hiemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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