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________________ श्रीगोपालनारायण बहुरा जैनवाङ्मय के योरपीय संशोधक योरपनिवासी विद्वानों द्वारा जैन-साहित्य में संशोधन होते प्रायः डेढ सौ वर्षों से भी अधिक समय हो चुका है. बुशनैन (Buchnan) ने मैसूर, कन्नड और मलाबार होते हुए मद्रास में अपने दौरे का वृत्तान्त १८०७ ई० में प्रकाशित कराया था, जिसमें उसने जगह-जगह जैनों का उल्लेख किया है. उसने १८११-१२ ई० में पटना और गया जिलों का भी सर्वेक्षण किया और उसके बारे में भी अपने संस्मरण लिखता रहा. व्ही० एच० जैक्सन द्वारा सम्पादित १६२५ ई० में पटना से प्रकाशित उक्त वृतान्त में लिखा है कि उसने महावीर के निर्वाणस्थल' की भी यात्रा की थी. इसी प्रकार १८०७ ई० में ही "एशियाटिक रिसर्चेज" के नवें अंक में "जैन वृत्तान्त" (Account of the Jains) के शीर्षक से तीन विवरण प्रकाशित हुए थे, जिनमें उक्त बुशनैन के अतिरिक्त लेफ्टिनण्ट कर्नल मैकेन्जी द्वारा अपनी १७९७ ई० की दैनन्दिनी के आधार पर संगृहीत वृत्तान्त थे. बुशनैन के लेख किसी जैन विद्वान् की टिप्पणियों पर भी आधारित थे और बहुत कुछ कल्पनाधारित एवं अशुद्ध भी थे. जैसे, उसने लिखा है कि बुंदेली, मेवाड़, मारवाड़, कुण्डेर, लाहौर, बीकानेर, जोधपुर आदि स्थानों के बहुत से राजपूत जैन थे. जयपुर के राजा सवाई प्रतापसिंह, सवाई जयसिंह का पुत्र था और उससे पूर्व के सभी राजा जैन थे. वास्तव में, न सवाई प्रतापसिंह सवाई जयसिंह का पुत्र था, न जयपुर का कोई राजा जैन धर्मावलम्बी हुआ. यह अवश्य है कि कितने ही राजाओं ने जैनों को प्रश्रय दिया था. इसके बाद ही कोलब्रुक (१७६५-१८३७ ई० सन्) के विविध लेखों में संगृहीत "जैनमत पर विचार-विमर्श'-परक निबन्ध प्रकट हुए. ये निबन्ध केवल विवरणात्मक न होकर पूर्वोक्त संशोधनों एवं स्वयं कोलबुक की संशोधनात्मक आलोचना पर आधारित थे. परन्तु, यह नहीं मान लेना चाहिए कि वैदेशिकों द्वारा उपरिलिखित उल्लेख ही सर्वप्रथम उल्लेख हैं. ईसा की पांचवीं शताब्दी में हेसिचिओस (Hesychios) नामक ग्रीक कोशकार ने “जेनोई" (Genoi) शब्द का प्रयोग नग्न-दार्शनिकों के अर्थ में किया है. बाद के विद्वानों ने इस "जेनोई" शब्द को जैनों से सम्बद्ध माना है. कर्नल मैकेन्जी के संग्रह का विलसन द्वारा संकलित सविवरण सूची-पत्र सर्व-प्रथम १८२८ ई० में प्रकाशित हुआ था, उसमें श्रावकों अथवा जैनों पर डेलामेन (Delamain) और बुशनैन के निबन्धों का सन्दर्भ अवश्य है तथा बाद में १. पोयपुरी (Pauyapury) के पास पोकोरपुर (Pokorpur) में महावीर का मंदिर है. मरण के अनन्तर उनके कुछ अवशेष वहीं पर रहे. बाद में वहाँ पर मंदिर का निर्माण कराया गया. २. Journal of Francis Buchnan, Ed. V. H. Jackson, 1925, PP. 102-103. Observations on the Sect of Jainas. Royal Asiatic Society of Great Britain & Ireland, Vol. I. Jain Educ P ry.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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